श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय को “क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग” कहा जाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) का गूढ़ रहस्य समझाते हैं। इस अध्याय का माहात्म्य अत्यंत प्रभावशाली और पवित्र है। श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Thirteenth Chapter Mahatmya
श्रीमहादेवी जी कहते हैं- पार्वती! अब तेरहवें अध्यायकी अगाण महिमा का वर्णन सुनो। उसको सुनने से तुम बहुत प्रसन्न होओगी। दक्षिण दिशा में तुडग्भद्रा नामकी एक बहुत बड़ी नदी है। उसके किनारे हरिहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है। वहाँ हरिहर नामसे सक्षात् भगवान् शिवजी विराजमान हैं, जिनके दर्शनमात्र से परम कल्याणकी प्राप्ति होती है। हरिहरपुर में हरिदीक्षित नामक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्याय में संलग्र तथा वेदों के पारगामी विद्वान थें। उनके एक स्त्री थी, जिसे लोग दुराचारा कहकर पुकारते थे। इस नामके अनुसार ही उसके कर्म थे। वह सदा पतिको कुवाच्य कहती थी।
उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया। पति से सम्बन्ध रखने वाले जितने लोग घरपर आते, उन सबको डाँट बताती और स्वयं कामोन्मत्त होकर निरन्तर व्यभिचारियों के साथ रमण किया करती थी। एक दिन नगरको इधर-उधर आते-जाते हुए पुरवासियों से भरा देख उसने निर्जन एवं दुर्गम वनमें अपने लिये संकेतस्थान बना लियां। एक समय रात में किसी कामी को न पाकर वह घर के किवाड़ खोल नगर से बाहर संकेत स्थान पर चली गयी। उस समय उसका चित काम से मोहित हो रहा था। वह एक-एक कुज्जमें तथा प्रत्येक वृक्ष के नीचे जा-जाकर किसी प्रियतम की खोज करने लगी; किंतु उन सभी स्थानों पर उसका परिश्रम व्यर्थ गया। उसे प्रियतमका दर्शन नहीं हुआ। तब वह उस वनमें नाना प्रकारकी बातें कहकर विलाप करने लगी। चारो दिशाओं में घूम-घूमकर वियोगजनित विलाप करती हुई उस स्त्रीकी आवाज सुनकर कोई सोया हुआ बाघ जाग उठा और उछलकर उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ वह रो रही थी। उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमी की आशंका से उसके सामने खड़ी होने के लिये ओटसे बाहर निकल आयी। उस समय व्याघ्र ने आकर उसे नखरूपी बाणों के प्रहार से पृथ्वी पर गिरा दिया। इस अवस्था में भी वह कठोर वाणी में चिल्लाती हुई पूछ बैठी – अरे बाघ! तू किसलिये मुझे मारने को यहाँ आया है? पहले इन सारी बातों को बता दे, फिर मुझे मारना।।
उसकी यह बात सुनकर प्रचण्ड पराक्रमी व्याघ्र क्षणभर के लिये उसे अपना ग्रास बनाने से रूक गया और हँसता हुआ-सा बोला – दक्षिण देश में मलापहा नामक एक नदी है। उसके तटपर मुनिपर्ण नगरी बसी हुई है। वहाँ पडलिड नामसे प्रसिद्ध साक्षात भगवान् शंकर निवास करते हैं उसी नगरी में मैं ब्राह्मण कुमार होकर रहता था। नदी के किनारे अकेला बैठा रहता और जो यज्ञ के अधिकारी नहीं हैं, उन लोगें से भी यज्ञ कराकर उनका अन्न खाया करता था। इतना ही नहीं, धन के लोभ से मैं सदा अपने वेदपाठ के फलको भी बेचा करता था। मेरा लोभ यहाँतक बढ़ गया था कि अन्य भिक्षुओं को गालियाँ देकर हटा देता और स्वयं दूसरों को नहीं देनेयोग्य धन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया करता था। ऋण लेने के बहाने मैं सब लोगों को छला करता था। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होने पर मैं बूढ़ा हुआ । मेरे बाल सफेद हो गये, आँखों से सूझता न था और मुँह के सारे दाँत गिर गये। इतने पर भी मेरी दान लेने की आदत नहीं छूटी। पर्व आने पर प्रतिग्रह के लोभ से मैं हाथ में कुश लिये तीर्थ के समीप चला जाया करता था। तत्पश्रात जब मेरे सारे अंग शिथिल हो गये, तब एक बार मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणों के घरपर माँगने खाने के लिये गया। उसी समय मेरे पैरमें कुत्ता ने काट लिया। तब मैं मूर्छित होकर क्षणभरमें पृथ्वी पर गिर पड़ा। मेरे प्राण निकल गये। उसके बाद मैं इसी व्याघ्र योनि में उत्पन्न हुआ। तबसे इस दूर्गम वन में रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापों को याद करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती स्त्रियों को मैं नहीं खाता। पापी-दुराचारी तथा कुलटा स्त्रियों को ही मैं अपना भक्ष्य बनाता हूँ; अतः कुलटा होने के कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी।।
यों कहकर वह अपने कठोर नखों से उसके शरीर के टूकड़े-टूकड़े करके खा गया। इसके बाद यमराज के दूत उस पापिनी को संयमनीपूरी में ले गये। वहाँ यमराजकी आज्ञा से उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्त से भरे हुए भयानक कुण्डों में गिराया। करोड़ों कल्पों तक उसमें रखने के बाद उसे वहाँ से ले आकर सौ मन्वन्तरों तक रौरव नरक मे रखा। फिर चारों मुँह करके दीन भावसे रोती हुई उस पापिनी को वहाँ से खीचकर दहनानन नामक नरक में गिराया। उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखायी देता था। इस प्रकार घोर नरकयातना भोग चुकने पर वह महापापिनी इस लोक में आकर चाण्डाल – योनि में उत्पन्न हुई। चाण्डाल के घर में भी प्रतिदिन पढ़ती हुई पूर्वजन्म के अभ्यास से पूर्ववत् पापों में प्रवृत्त रहीं। फिर उसे कोढ़ और राजयक्ष्माका रोग हो गया । नेत्रों में पीड़ा होने लगीं । फिर कुछ कालके पश्रात् वह पुनः अपने निवासस्थान (हरिहरपुर) – हो गयी, जहाँ भगवान् शिव के अन्तःपुरकी स्वामिनी जम्भका देवी विराजमान हैं। वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र ब्राह्मण का दर्शन किया, जो निरन्तर गीता के तेरहवें अध्यायका पाठ करता रहता था। उसके मुख से गीता का पाठ सुनते ही वह चाण्डालशरीर से मुक्त हो गयी और दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोक में चली गयी।
तेरहवाँ अध्याय
उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले, हे अर्जुन! यह शरीर क्षेत्र है, ऐसे कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उनके तŸवको जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। और हे अर्जुन ! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मेरे को ही जान और क्षेत्र- क्षेत्रश्रका अर्थात् विकारसहित प्रकृति और पुरुषका जो तŸवसे जानना है वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है इसलिये वह क्षेत्र जो है और जैसाहै तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाववाला है, वह सब संक्षेपसे मेरे से सुन। यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका तत्व ऋषियो द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है अर्थात् समझाया गया है और नाना प्रकार के वेदमन्त्रों से विभागपूर्वक कहा गया है तथा अच्छी प्रकार निश्रय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदोंद्वारा भी वैसे ही कहा गया है।। हे अर्जुन! वही मैं तेरे लिये कहता हूँ कि पाँच महाभूत अर्थात् आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वी का सूक्ष्म-भाव, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया भी तथा दस इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र रसना और घ्राण एवं वाक् हस्त, पाद, उपस्थ और गुद, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, और गन्ध । तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और स्थूल देहका पिण्ड एवं चेतना और धृति इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित संक्षेप से कहा गया।।
हे अर्जुन! श्रेष्ता के अभिमानका अभाव, दम्भाचरणका अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना और क्षमाभाव तथा मन-वाणीकी सरलता, श्रद्धा-भक्तिसहित गुरुकी सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि अन्तःकरणकी स्थिरता, मन और इन्द्रियो सहित शरीर का निग्रह इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्तिका अभाव और अहंकारका भी अभाव एवं जन्म-मृत्यु-जरा और रोग आदिमें दुःख-दोषों का बारंबार विचार करना पुत्र, स्त्री, घर और धनादि में आसक्ति का अभाव और ममता का न होना तथा प्रिय अप्रियकी प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना अर्थात् मनके अनुकूल तथा प्रतिकूलके प्राप्त होने पर हर्ष शोकादि विकारों का न होना मुझ परमेश्रवर एकीभाव से स्थितिरूप ध्यानयोग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समूदाय में प्रेमका न होना । तथा अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्व ज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञान है और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है ऐसे कहा है।।
हे अर्जुन ! जो जानने के योग्य है तथा जिसको जान कर मनुष्य परमानन्दको प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूँगा, वह आदि रहित, परम ब्रह्म अकथनीय होने से न सतृ कहा जाता है और न असत् ही कहा जाता है। पंरतु वह सब ओर से हाथ-पैरवाला एवं सब ओरसे नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब आरसे श्रोत्रवाला है; क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तुमें सब इन्द्रियोंसे रहित है तथा आसक्ति रहित और गुणों से अतीत हुआ भी अपनी योगमाया से सबको धारण-पोषण करने वाला और गुणों को भोगने वाला है। तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है तथा अति समीप में और दूरमें भी स्थित वही है। और वह विभागरहित एकरूपसे आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में पृथक-पृथक् के सदृश स्थित प्रतीत होता है तथा वह जान ने योग्य परमात्मा, विष्णुरूप से भूतों को धारण – पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्राह्मरूप से सबका उत्पन्न करने वाला है। वह ब्रह्म ज्योंतियो का भी ज्योंति एवं मायासे अति परे कहा जाता है तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जाननेके योग्य है एवं तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सबके हृदय में स्थित है। हे अर्जुन! इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्माका स्वरूप संक्षेप से कहा गया, इसको तत्व से जानकर मेरा भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।।
हे अर्जुन! प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी मेरी माया और जीवात्मा अर्थात् क्षेत्रज्ञ, इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारो को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदाथों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न हुए जान क्योंकि कार्य और करण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख -दुःखोंके भोक्तापन में अर्थात् भोगने में हेतु कहा जाता है। परंतु प्रकृति में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भागता है और इन गुणों का सग ही इस जीवात्मा के अच्छी, बुरी योनियो में जन्म लेने में कारण है वास्तव में तो यह पुरुष इस देहमें स्थित हुआ भी पर अर्थातृ त्रिगुणमयी माया से सर्वथा अतीत ही है, केवल साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमनता एवं सबको धारण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता तथा ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा, ऐसा कहा गया है इस प्रकार पुरुषो और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है वह सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी फिर नहीं जन्मता है अर्थात् पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होता है। हे अर्जुन! उस परम पुरुष परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान से द्वारा हृदय में देखते हैं तथा कितने ही ज्ञानयोग के द्वारा देखते हैं और अपर कितने ही निष्काम कर्मयोग के द्वारा देखते हैं । परंतु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धि वाले पुरुष हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात् तत्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं अर्थात् उन पुरुषों के कहने के अनुसार ही श्रद्धासहित तत्पर हुए साधन करते हैं और वे सुनने के परायण हुए पुरुष भी मृत्यु रूप संसारसागर को निःसंदेह तर जाते हैं। हे अर्जुन ! यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावर, जडग्म वस्तु उत्पन्न होती है, उस सम्पूर्ण को तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न हुई जान अर्थात् प्रकृति और पुरुष के परस्पर के सम्बन्ध से ही सम्पूर्ण जगत की स्थिति है, वास्तव में तो सम्पूर्ण जगत् नाशवानृ और क्षणभगुर होने से अनित्य है।।
इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्ररको समभावसे स्थित देखता है, वही देखता है।। क्योंकि वह पुरुष सबमें समभाव से स्थित हुए परमेश्रवर को समान देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है अर्थात् शरीर का नाश होने से अपने आत्मा का नाश नहीं मानता है, इससे वह परमगति को प्राप्त होता है। और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से ही किये हुए देखता है अर्थात् इस बात को तत्व से समझ लेता है कि प्रकृति से उत्पन हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों मे बर्तते हैं तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही देखता है और यह पुरुष जिस काल में भूतों के न्यारे-न्यारे भाव को एक परमात्मा के संकल्प के आधार स्थिर देखता है तथ उस परमात्मा के संकल्प को ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उस काल में सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होता है। हे अर्जुन ! अनादि होने से और गुणतीत होने से यह अविनाशी परमात्मा, शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है और न लिपायमान होता है।। जिस प्रकार सर्वत्रद व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के कारण लियापयमान नहीं होता है, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हुआ भी आत्मा गुणातीत होने के कारण देहके गुणों से लिपायमान नहीं होता हैं हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्रको प्रकाशित करता है अर्थातृ नित्यबोधस्वरूप एक आत्मा की ही सत्व से सम्पूर्ण जडवर्ग प्रकाशित होता है। इस प्रकार क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा विकारसहित प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरुष ज्ञाननेत्रोंद्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।।
इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘ क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग’’ नामक तेरहवाँ अध्याय।।
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