सोमवार, मई 19, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्याय का माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Third Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता का तीसरा अध्याय “कर्मयोग” के नाम से प्रसिद्ध है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया है, जिसमें बताया गया है कि मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन निस्वार्थ भाव से करना चाहिए, बिना किसी फल की अपेक्षा के। यह अध्याय जीवन में कर्म की अनिवार्यता और उसके महत्व को स्पष्ट करता है।

श्रीभगवान् कहते हैं- प्रिये ! जनस्थान में एक जउ नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक वंश में उत्पत्र हुआ था। उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर बनिये की वृत्ति में मन लगाया । उस परायी स्त्रियों के साथ व्यभिचार करने का व्यसन पड़ गया था। वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और शिकार खेलकर जीवों की हिंसा किया करता था। इसी प्रकार उसका समय बीतता था। धन नष्ट हो जाने पर वह व्यापरके लिये बहुत दूर उत्तर दिशा में चला गया। वहाँ से धन कमाकर घरकी ओर लौटा। बहुत दूरतकका रास्ता उसने तय कर लिया था। एक दिन सूर्यास्त हो जाने पर जब दसों दिशाओं में अन्धकार फैल गया, तब एक वृक्ष के नीचे उसे लुटेरों ने धर दबाया और शीघ्र ही उसके प्राण ले लियें। उसके धर्मका लोप हो गया था, इसलिये वह बड़ा भयानक प्रेत हुआ।
उसका पुत्र बड़ा धर्मात्मा और वेदों का विद्वान् था। उसने अबतक पिता के लौट आने की राह देखीं ज बवे नहीं आये, तक उनका पता लगाने के लिये वह स्वयं भी घर छोड़कर चल दियां वह प्रतिदिन खोज करता, मगर राहगीरो से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था। तदनन्तर एक दिन एक मनुष्य से उसकी भेंट हुई, जो उसके पिता का सहायक था, वह बड़ा बुद्धिमान् था। बहुत कुछ सोच-विचार कर पिता का पारलौकिक कर्म करने की इच्छा से आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जाने का विचार किया। मार्ग में सात-आठ मुकाम डालकर वह नवें दिन उसी वृक्ष के नीचे पहुँचा, जहाँ इसके पिता मारे गये थे। उस स्थानपर उसने संध्योपासना की और गीता के तीसरे अध्यायका पाठ किया। इसी समय आकाश में बड़ी भयानक आवज हुई। उसने अपने पिता को भयंकर आकर में देखा; फिर तुरंत ही अपने सामने आकाश में एसे एक सुन्दर विमान दिखायी दिया, जो महान् तेजसे व्याप्त था। उसमें अनेकों क्षुद्र घंटिकाएँ लगी थी। उसके तेजसे समस्त दिशाएँ आलोकित हो रही थी। यह दृश्य देखकर उसके चिंता की व्यग्रता दूर हो गयी। उसने विमान पर अपने पिता को दिव्यरूप धारण किये विराजमान देखा। उनके शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। और मुनिजन उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही पुत्र ने प्रणाम किया, तब पिताने भी उसे आशीर्वाद दिया।
तत्पश्रातृ उसने पिता से यह सारा वृत्तन्त पुछा। उसके उत्तर में पिता ने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया- ‘बेटा! दैववश मेरे निकट गीता के तृतीय अध्यायका पाठ करके तुमने इस शरीर के द्वारा किये हुए दुस्त्यज कर्मबन्धन से मुझे छुडा दियां अतः अब घर लौट जाओ; क्योंकि जिसके लिये तुम काशी जा रहे थे, वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्याय के पाठसे ही सिद्ध हो गया है। पिता के यों कहने पर पुत्र ने पूछा- तात ! मेरे उपदेश दीजिये तथा और कोई कार्य जो मेरे लिये करने योग्य हो बदलाइये।
तब पिताने उससे कहा – अनघ! तुम्हें यही कार्य फिर करना है। मैंने जो कर्म किया है, वही मेरे भाईने भी किया था। इससे वे घोर नरकमें पड़े हैं। उनका भी तुम्हें उद्धार करना चाहिये तथा मेरे कुलके और भी जितने लोग नरक में हैं, उन सबका भी तुम्हारे द्वारा उद्धार हो जाना चाहिये; यही मेरा मनोरथ है। बेटा! थ्जस साधन के द्वारा तुमने मुझे संकटसे छुड़ाया है, उसीका अनुष्ठान औरों के लिये भी करना उचित है। उसका अनुष्ठान करके उससे होने वाला पुण्य उन नारकी जीवों को संकल्प करके दे दो। इससे वे समस्त पूर्वज मेरी ही तरह यातना से मुक्त हो स्वल्पकाल में ही श्रीविष्णु के परमपद को प्राप्त हो जायँगे।’
पिताका यह संदेश सुनकर पुत्र ने कहा– तात! यदि ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी ही रुचि है तो मैं समस्त नारकी जीवों को नरक से उद्धार कर दूँगा। यह सुनकर उसके पिता बोले- बेटा ! एवमस्तु, तुम्हारा कल्याण हो; मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पत्र हो गया। इस प्रकार पुत्र को आश्रासन् देकर उसके पिता भगवान् विष्णु के परमधामको चले गये। तत्पश्रात् वह भी लौअकर जनस्थान में आया और परम सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिर में उनके समक्ष बैठकर पिता के आर्दशानुसार गीता के तीसरे अध्यायका पाठ करने लगा । उसने नारकी जीवों का उद्धार करने की इच्छा से गीतापाठजनित सारा पुण्य संकल्प करके दे दिया।
इसी बीच में भगवन् विष्णु के दूत यातना भोगने वाले नार की जीवों को छुडाने के लिये यमराजके पास गये। यमराजने नाना प्रकारके सत्कारों से उनका पूजन किया और कुशल पूछी। वे बोले – ‘धर्मराज! हम लोंगों के लिये सब ओर आन्नद-ही-आनन्द है। इस प्रकार सत्कार करके पितृ लोक के सम्राट परम बुद्धिामानृ यमने विष्णु दूतों से यमलोक में आने का कारण पूछा।
तब विष्णुदूतोंने कहा – यमराज! शेषशयार पर शयन करने वाले भगवान् विष्णु ने हमलोगों को आप के पास कुछ संदेश देने के लिये भेजा है। भगवान् हमलोगों के मुखसे आपकी कुशल पूछते हैं और यह आज्ञा देते हैं कि ‘आम नकर में हुए समस्त प्राणियों को छोड़ दें।
अमिततेजस्वी भगवान् विष्णु का यह आदेश सुनकर यमने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन-ही-मन कुछ सोचा। तत्पश्रात् मदोन्मन्त नारकी जीवों को मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान् विष्णु के वास-स्थान को चले। यमराज श्रेष्ठ विमान के द्वारा जहाँ क्षीरसागर है, वहाँ जा पहुँचे। उसके भीतर कोटि-कोटि सूर्यों के समान कान्तिमान् नील कमल-दलके समान श्यामसुन्दर लोकनाथ जगगुरु श्रीहरिका उन्होंने दर्शन किया। भगवान् का तेज उनकी शयया बने हुए शेषनाग के फणों की मणियों के प्रकाश से दुगुना हो रहा था वे आन्नद-युक्त दिखायी दे रहे थे। उसका हृदय प्रसत्रता से परिणूर्ण था। भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवानसे प्रेमपूर्वक उन्हें बार-बार निहार रही थी। चारों ओर योगीजन भगवान् की सेवामें खड़े थे। उन योगियों की आँखों के तारे ध्यानस्थ होने के कारण निश्रल प्रतीत होते थे। देवराज इन्द्र अपने विरोधियों को परास्त करने के उद्देश्य से भगवान् की स्तुति कर रहे थे। ब्रह्माजी के मुख से निकले हुए देवदान्तवाक्य मुर्तिमान् होकर भगवान् के गुणोंका गान कर रहे थे। भगवान् पूर्णतः संतुष्ट होने के साथ ही समस्त यानियों की ओर से उदासीन प्रतीत होते थे। जीवों में से जिन्होंने योग-साधन के द्वारा अधिक पुण्य संचय किया था, उन सबकों एक ही साथ वे कृपादृष्टि से निहार रहे थे। भगवानृ अपने स्वरूप भूत अखिल चराचर जगत्को आन्नद पूर्ण दृष्टि से आमोदित कर रहे थे। शेषनागकी प्रभा से उद्धासित एवं सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किये नील कमल के सदृश श्यामवर्ण वाले श्रीहरि ऐसे जान पड़ते थे, मानेा चाँदनी से घिरा हुआ आकश सुशोभित हो रहा हो। इस प्रकार भगवान् की झाँकी करके यमराज अपनी विशाल बुद्धि के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।
यमराज बोले – सम्पूर्ण जगत्का निर्माण करने वाले परमेश्रर ! आपका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है। आपके मुख से ही वेर्दों का प्रादुर्भाव हुआ है। आप ही विश्व स्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा है। आपकों नमस्कार है। अपने बल और वेग के कारण जो अत्यन्त दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे दानवेन्द्रों का अभिमान चुर्ण करने वाले भगवान् विष्णु को नमस्कार है। पालन के समय समय शरीर धारण करने वाले, विश्व के आधार भूत, सर्वव्यापी श्रीहरि को नमस्कार है। समस्त देहधारयिोंकी पातक-राशि को दूर करने वाले परमात्मा को प्रणाम है। जिनके ललाटवर्ती नेत्रके तनिक-सा खुलने पर भी आगकी लपटें निकलने लगती हैं, उन रुद्ररूपधारी आप परमेश्रर को नमस्कार है। आप सम्पूर्ण विश्व के गुरु आत्मा और महेश्वर हैं, अतः समस्त वैष्णवजनों को संकटसे मुक्त करके उनपर अनुग्रह करते हैं। आप माया से विस्तारको प्राप्त हुए अखिल विश्व में व्याप्त होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पत्र होने वाले गुणों से मोहित नहीं होतें माया तथा मायजनित गुणांे के बीच में होनेपर भी आपपर उन में से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता। आपकी महिमाका अन्त नहीं है। क्योंकि आप असीम हैं। फिर आप वाणीके विषय कैसे हो सकते है। अतः मेरा मौन रहना ही उचित है।
ठस प्रकार स्तुति करके यमराज ने जोड़कर कहा- जगगुरु ! आपके आदेश से इन जीवों को गुणरहित होनेपर भी मैंने छोड़ दिया है। अब मेरे योग्य और जो कार्य हो, उसे बताइये। उनके यों कहने पर भगवानृ मधुसूदन मेघके समान गम्भीर वाणीद्वारा मानो अमृत रस से सीचते हुए बोले- धर्मराज्! तुम सबके प्रति समानभाव रखते हुए लोकों का पापसे उद्धार कर रहे हो। तुमपर देहधारियों का भार रखकर मैं निश्ति हूँ। अत- तुम अपना काम करों और अपने लोक को लौट जाओ।
यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये। यमराज भी अपनी पूरी को लौट आये। तब वह ब्राह्मण अपनी जाति के और समस्त नार की जीवों का नरक से उद्धार करके स्वयं भी श्रेष्ठ विमान द्वारा श्रीविष्णु धाम को चला गया।।

तीसरा अध्याय

इसपर अर्जुन ने प्रश्न किया कि हे जनार्दन! यदि कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञान आपके श्रेष्ठ मान्य है तो फिर केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं। तथा आप मिले हुए-से बचन से मेरी बुद्धि को मोहित सी करते हैं, इसलिये उस एक बात को निश्य करके कहिये कि जिससे मैं कल्याण को प्राप्त होऊँ। इस प्रकार अर्जुन के पुछने पर भगवानृ श्रीकृष्ण महाराज बोले, हे निष्पाप अर्जुन इस लोक में दो प्रकारक की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है, ज्ञानियों की ज्ञानयोगसे और योगियों की निष्काम कर्मयोग से परंतु किसी भी मार्ग के अनुसार कर्मों को स्वरूप् त्यागने की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि मनुष्य न तो कर्मों के न करने से निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों को त्यागने मात्र से भगवत्साक्षात्काररूप सिद्धि को प्राप्त होता है तथा सर्वथा कर्मोे का स्वरूप से त्याग हो भी नहीं सकता, क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल में क्षणमात्र भी बिना किये नहीं रहता है, निःसन्देह सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करते है। इसलिये जो मूढ़बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों को हठसे रोककर इन्द्रियों के भोगों को ेमनसे चिन्तन करता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है और हे अर्जुन! जो पुरुष मनसे इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है। इसलिये तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नही सिद्ध होगा।
हे अर्जुन! बन्धन के भयसे भी कर्माें का त्याग करना योग्य नहीं है, क्योंकि यज्ञ अर्थात् विष्णु के निर्मित किये हुए कर्म के सिवा अन्य कर्म में लगा हुआ ही यह मनुष्य कर्मो द्वारा बँधता है, इसलिये हे अर्जुन! आसक्ति से रहित हुआ, उस परमेश्रर के निमिन्त कर्मका भली प्रकार आचरण कर कर्म न करने से तू पापको भी प्राप्त हेा; क्योंकि प्रजापति ब्रह्माने कल्प के आदिमें यज्ञसहित प्रजाको रचकर कहा कि इस यज्ञद्वारा तुमलोग वृद्धि को प्राप्त हो ओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनओं के देने वाला होवे तथा तुम लोग इस यज्ञद्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करें, इस प्रकार आपस में कर्तव्य समझकर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होवोगे। तथा यज्ञद्वारा बढ़ाये हुए देवतालोग तुम्हारे लिये बिना माँगे ही प्रिय भोगों को देंगे, उनके द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष इनके लिये बिना दिये ही भोगता है वह निश्चय चोर है। कारण कि यज्ञसे शेष बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूटते है। और जो पापी लोग अपने शरीर पोषण के लिये ही पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पति वृष्टि से होती है तथा वृष्टि यज्ञ से होती है और वह यज्ञ कर्मोें से उत्पन होने वाला है। तथा उस कर्म को तू वेद से उत्पन हुआ जान और वेद अविनाशी परमात्मासे उत्पन हुआ है, इससे सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्ता सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं हे पार्थ जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार चलाये हुए सृष्टि चक्र के अनुसार नहीं इन्द्रियों के सुख को भोगने वाला पापयु पुरुष व्यर्थही जीता है।
परंतु जो मनुष्य आत्माही में प्रीति वाला और आत्मही में तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो वे, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। क्योंकि इस संसार मे उस पुरुष का किये जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है और न किये जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है तथा इसका सम्पूर्ण भूतों में कुछ भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं है तो भी उसके द्वारा केवल लोकहितार्थ कर्म किये जाते हैं। इससे तू अनासक्त हुआ निरन्तर कर्तव्यकर्मका अच्छी प्रकार आचरण कर; क्योकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है इस प्रकार प्रकार जनकादि ज्ञानी जन भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, इसलिये तथा लोकसंग्रह को देखते हुआ भी तू कर्म करनेे को ही योग्य है। क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है अन्य पुरुष भी उस-उसक ेही अनुसार बर्तते हैं, वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, लोग भी उसी के अनुसार बर्तते है। इसलिये हे अर्जुन! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किंचित् भी प्राप्त होने योग्य बस्तु अप्राप्त नहीं हे तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ। क्योंकि यदि मैं सावधान हुआ कदाचित् कर्म में न बर्तूं तो हे अर्जून! स्ब प्रकार से मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बर्तते हैं अर्थात् बर्तने लग जायँ तथा यदि मैं कर्म न करूँ लो लोग ये सब लोब भ्रष्ट हो जायँ और मैं वर्णसंकरका करने वाला होऊँ तथा इस सारी प्रजाका हनन करूँ अर्थात् मानेवाला बनूँ। इसलिये हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान भी लोकशिक्षाको चाहता हुआ कर्म करे।
ज्ञानी पुरुष को चहिये कि कर्माें में असाक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उत्पन न करे, किंतु स्वयं परमात्माके स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मो को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावे । हे अर्जून! वास्तव में सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये हुए हैं तो भी अहंकार से मोहत हुए अन्तःकरण वाला पुरुष मैं कर्ता हूँ ऐसे मान लेता है। परंतु हे महाबाहो! गुणविभाग और कर्मविभाग के तŸव को जानने वाला ज्ञानी पुरुष संम्पूर्ण गुण गुणों में बर्तते हैं, ऐसे मानकर नही आसक्त होता है। और प्रकृति के गुणों के मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मो में आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझ ने वाले मूर्खों को अच्छी प्रकार जानने वाला ज्ञानी पुरुष चलायमान न करे इसलिये हे अर्जुन तू ध्याननिष्ठ चित्त से सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में समर्पण करके, आशारहित और ममतारहित होकर संतापरहित हुआ युद्ध कर हे अर्जुन! जो कोई भी मनुष्य दोषबुद्धि से रहित और श्रद्धासे युक्त हुए सदा ही मेरे इस मत के अनुसार बर्तते हैं, वे पुरुष सम्पूर्ण कमोंसे छूट जाते हैं और जो दोषदृष्टि वाले मूर्ख लोग इस मेरे मत के अनुसार नहीं बर्तते हें, उन सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित चित्त वालों को तू कल्याण से भ्रष्ट हुए ही जान क्योंकि सभी प्राणी प्राकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं, ज्ञानवानृ भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, फिर इसमें किसी का हठ कया करेगा। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि इन्द्रियो के अर्थ में अर्थात् सभी इंन्द्रियों के भागों में स्थित जो राग और द्वेष हैं, उन दोनों के वश में नहीं होवे; क्योकि इसके वे दोनों ही कल्याणमार्ग में विघ्र करने वाले महानृ शत्रु हैं। इसलिये उन दोनों को जीत कर सावधान हुआ स्वर्धमा आचरण करे; क्योंकि अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तर है, अपेन धर्म में मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।
इस पर अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण फिर यह पुरुष बलातृ लगाये हुए के सदृश न चाहता हुआ भी किससे प्रेरा हुआ पाप का आचरण करता है?
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर महाराज बोले, हे अर्जुन! रजोगुण से उत्पन हुआ यह काम ही क्रोध है, यह ही महा अशन अर्थात् अग्रि के सदृश भोगों से न तृप्त होने वाला बड़ा पापी है, इसी विषय में इसको ही तू वैरी जान जैसे धुएँ से अग्रि और मल से दर्पण ढका जाता है। तथा जैसे जेरसे गर्भ ढका हुआ है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है और हे अर्जून! ठस अग्रिसदृश न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी से ज्ञान ढका हुआ है इन्द्रियाँ मन और बुद्धि इस काम के ज्ञान को आच्छादित कर के इस जीवात्मा को मोहित करता है इसलिये हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान ओर विज्ञान के नाश करने वाले इस कामपापी को निश्रय पूर्वक मार और यदि नू समझे कि इन्द्रियों को रोकर कामरूप वैरी को मारने की मेरी शक्ति नहीं है; तो तेरी यह भूल है; क्योकि इस शरीर से तो इन्द्रियों को पर (श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म) कहते हैं और इन्द्रियों से पर मन है और मनसे भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थातृ सूक्ष्म तथा सब प्रकार बलवानृ और श्रेष्ठ अपने आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मनको वश में करके हे महाबाहो ! अपनी शक्ति को समझकर इस दुर्जय कामरूप शत्रु को मार।।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘कर्मयोग’’ नामक तीसरा अध्याय।।

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