सोमवार, जुलाई 7, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके दसवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Tenth Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता का दसवाँ अध्याय “विभूति योग” के नाम से प्रसिद्ध है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य विभूतियों (अलौकिक शक्तियों) का वर्णन किया है।

भगवन् शिव कहते हैं – सुन्दरि ! अब तुम दशम अध्याय के माहात्म्य की परमपावन कथा सुनो, जो स्वर्गरूपी दुर्गमें जाने के लिये सुन्दर सोपान और प्रभावकी चरम सीमा है। काशीपुरी में धीरेबुद्धि नाम से विख्यात एक ब्राह्मण था, जो मुझ में प्रिय नन्दी के समान भक्ति रखता था। वह पावन कीर्ति के अर्जन में तत्पर रहने वाला, शान्तचित्त और हिंसा कठोरता एवं दुःसाहस से दूर रहने वाला था। जितेन्द्रिय होने के कारण वह निवृति-मार्ग में ही स्थित रहता था। उसने वेदरूपी समुद्रका पार पा लिया था। वह सम्पूर्ण शास्त्रों के तात्पर्यका ज्ञाता था। उसका चित्त सदा मेरे ध्यानमें संलग्र रहता थां वह मनको अन्तरात्मा में लगाकर सदा आत्मतŸवका साक्षात्कार किया करता था; अतः जब चलने लगता, तब मैं प्रेमवश उसके पीछे दौड़-दौड़कर उसे हाथ का सहारा देता रहता था।

यह देख मेरे पार्षद भृडिग्रिटिने पूछा – भगवान् ! इस प्रकार भला, किसने आपका दर्शन किया होगा। इस महात्माने कौन-सा तप, होम अथवा जप किया है कि स्वयं आप ही पद-पदपर इसे हाथका सहारा देते चलते हैं?
भृडिग्रिटिका यह प्रश्न सुनकर मैंने इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया। एक समयकी बात है, कैलासपर्वत की पार्श्रवभागमे पुत्राग वन के भीतर चन्द्रमाकी अमृतमयी किरणों से धुली हुई भूमि में एक वेदीका आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था। मेरे बैठने के क्षणभर बाद ही सहसा बड़े जोरकी आँधी उठी, वहाँके वृृक्षों की शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपस में टकराने लगीं, कितनी ही टहनियाँ टूट-टूटकर बिखर गयीं। पर्वत की अविचल छाया भी हिलने लगी। इसके बाद वहाँ महान् भयंकर शब्द हुआ, जिससे पर्वत की कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं। तदनन्तर आकाशसे कोई विशाल पक्षी उतरा, जिसकी कान्ति काले मेघके समान थी। वह कल्जजीक राशि, अन्धकार के समूह अथवा पंख कटे हुए काले पर्वत-सा जान पड़ता था। पैरोंसे पृथ्वीका सहारा लेकर उस पक्षीने मुझे प्रणाम किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणो में रखकर स्पष्ट वाणी में स्तुति करनी आरम्भ की।

पक्षी बोला – देव ! आपकी जय हो। आप चिदानन्दमयी सुधा के सागर तथा जगत् के पालक हैं। सदा सद्धावनासे युक्त एवं अनासक्ति की लहरों से उल्लसित हैं। आपके वैभवका कहीं अन्त नहीं है। आपकी जय हो। अद्वैतवासनासे परिपूर्ण बुद्धि के द्वारा आप त्रिविध मलोंसे रहित हैं। आप जितेन्द्रिय भक्तों के अधीन रहते हैं तथा ध्यान मेें आपके स्वरूपका साक्षात्कार होता हैं आप अविद्यामय उपाधि से रहित, नित्यमुक्त, निराकार, निरामय, असीम, अहंकारशून्य, आवरणरहित और निर्गुण हैं। आपके चरणकमल शरणगत भक्तों की रक्षा करने में प्रवीण हैं। अपने भयंकर ललाटरूपी महासर्पकी विषज्वालासे आपने कामदेवको भस्म किया हैं आपकी जय हो। आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणो से दूर होते हुए भी प्रामाण्यस्वरूप हैं। आपको बार-बार नमस्कार है। चैतन्य के स्वामी तथा त्रिभुवनस्पधारी आपको प्रणाम है। मैं श्रेष्ठ योगियों द्वारा चुम्बित आपके उन चरण-कमलों की वन्दना करता हूँ, जो अपार भव-पाप के समुद्र से पार उतारने में अद्धुत शक्तिशाली हैं। महादेव! साक्षात् बृहस्पति भी आपकी स्तुति करने की धृष्टता नहीं कर सकते। सहस्त्र मुखोंवाले नागराज शेष में भी इनती चातुरी नहीं हैं कि वे आपके गुणो का वर्णन कर सकें फिर मेरे-जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षीकी तो बिसात ही क्या है।
उस पक्षीके द्वारा किये हुए इस स्तोत्रको सुनकर मैंने उससे पूछा – ‘विहडग्म! तुम कौन हो और कहाँ से आये हो? तुम्हारी आकृति तो हंस -जैसी है, मगर रंग कौएका मिला है। तुम जिस प्रयोजनको लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओं।

पक्षी बोला – देवेश ! मुझे ब्रह्माजीका हंस जानिये। धूर्जटे! जिस कर्मसे मेरे शरीर में इस समय कालिमा आ गयी है, से सुनिये। प्रभो! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं अतः आपसे कोई भी बात छिपी नहीं हैं तथपि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ । सौराष्ट्र नगर के पास एक सुन्दर सरोवर है, जिसमें कमल लहलहाते रहते हैं । उसीमें से बालचन्द्रमाके टूकड़े-जैसे श्रेत मृणालों के ग्रास लेकर मैं बड़ी तीव्र गति से आकाश में उड़ रहा था। उड़ते-उड़ते सहसा वहाँ से पृथ्वीपर गिर पड़ा। जब होश में आया और अपने गिरने का कोई कारण न देख सका तो मन-ही-मन सोचने लगा – ‘अहो ! यह मुझपर क्या आ पड़ा ? आज मेरा पतन कैसे हो गया? पके हुए कपूर के समान मेरे श्रेत शरीर में यह कालिमा कैसे आ गयी? इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरे के कमलों में से मुझे ऐसी वाणी सुनायी दी – ‘हंस ! उठो, मैं तुम्हारे गिरने और होने का कारण बताती हूँ। तब मैं उठकर सरोवर के बीच मे गया और वहाँ पाँच कमलों से युक्त एक सुन्दर कललिनीको देखां उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिण की और अपने पतन का सारा कारण पूछा।

कमलिनी बोली – कलहंस! तुम आकाशमार्ग से मुझे लाँघ कर गये हो, उसी पातक के परिणामवश तुम्हें पृथ्वी पर गिरना पड़ा है तथा उसी के कारण तुम्हारे शरीर में कालिमा दिखायी देती है। तुम्हें गिरा देख मेरे हृदय में दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमल में द्वारा बोलने लगी हूँ, उस समय मेरे मुखसे निकली हुई सुगन्ध को सूँघकर साठ हजार भँवरे स्वर्गलोकको प्राप्त हो गये हैं। पक्षिराज! जिस कारण मुझमें इतना वैभव – ऐसा प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ; सुनो। इस जन्म से पहले तीसरे जन्म में मैं इस पृथ्वी पर एक ब्राह्मणकी कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी। उस समय मेरा नाम सरोजवदना था। मैं गुरुजनों की सेवा करती हुई सदा एकमात्र पतिव्रत के पालन में तत्पर रहती थी। एक दिनकी बात है, मैं एक मैना को पढ़ा रही थी। इससे पतिसेवामें कुछ विलम्ब हो गया। इससे पतिदेवता कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया – ‘पापिनी ! तू मैना हो जा। मरने के बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि प्रतिव्रत्य के प्रसाद से मुनियों के ही घर में मुझे आश्रय मिला। किसी मुनिकन्याने मेरा पालन-पोषण किया। मैं जिनके घर में थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातःकाल विभूतियोग नाम से प्रसिद्ध गीता के दसवें अध्यायका पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्यायको सुन करती थी। विहडग्म! काल आनेपर मैं मैना का शरीर छोड़कर दशम अध्यायके माहात्म्य से स्वर्गलोक में अप्सरा हुई। मेरा नाम पार्वती हुआ और मैं पार्वती की प्यारी सखी हो गयीं एक दिन मैं विमानसे आकाश में विचर रही थी। उस समय सुन्दर कमलों से सुशोभित इस रमणीय सरोवर पर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतर कर ज्यों ही मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की, तौही ही दुर्वासा मुनि आ धमके । उन्होने वस्त्रहीन अवस्था में मुझे देख लिया। उनके भयसे मैंने स्वयं ही एक कमलिनीका रूप धारण कर लिया। मेरे दोनों पैर दो कमल हुए। दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अगों के साथ मेरा मुख भी एक कमल हुआ। इस प्रकार मैं पाँच कमलों से युक्त हुई। मुनिवर दुर्वासाने मुझे देखा। उनके नेत्र क्रोधाग्रिसे जल रहे थे। वे बोले – पापिनी तू इसी रूपमें सौ वर्षों तक पड़ी रह। यह शाप देकर वे क्षणभर में अन्तर्धान हो गये। कमलिनी होने पर भी विभूतियोगाध्या के माहात्म्य से मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है। मुझे लाँघने मात्र के अपराधसे तुम पृथ्वीपर गिरे हो। पक्षिराज! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने ही आज मेरे शापकी निवृत्त हो रही है, क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये। मेरे द्वारा गाये जाते हुए उस उत्तम अध्यायको तुम भी सुन लो। उसके श्रवणमात्रसे तुम भी आज ही मुक्त हो जाओंगे।
यों कहकर पत्तनीने स्पष्ट एवं सुन्दर वाणी में दसवें अध्यायका पाठ किया और वह मुक्त हो गयी। उसे सुनने के बाद उसी के दिये हुए इस उत्तम कमलकों लाकर मैंने आपको अर्पण किया है।
इतनी कथा सुनाकर उस पक्षीने अपना शरीर त्याग दिया। यह एक अद्धुत-सी घटना हुई। वही पक्षी अब दसवें अध्याय के प्रभावसे ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ है। जन्म से ही अभ्यास होने के कारण शैशवावस्था से ही इसके मुखसे सदा गीता के दसवें अध्यायका उच्चारण हुआ करता है। दसवें अध्याय के अर्थ-चिन्तन का यह परिणाम हुआ हैं कि यह सब भूतों मेें स्थित शडख्-चक्रधारी भगवान् विष्णु का सदा ही दर्शन करता रहता है। इसकी स्नेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारी के शरीर पर पड़ जाती है, वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, मुक्त हो जाता है। तथा पूर्वजन्म में अभ्यास किये हुए दसवें अध्याय के माहात्म्य से इसको दुर्लभ तत्वज्ञान प्राप्त है तथा इसने जीवनन्मुक्ति भी पा ली है। अतः जब यह रास्ता चलने लगता है तो मैं इसे हाथका सहारा दिये रहता हूँ। भृडिग्रिटे! यह सब दसवे अध्यायकी ही महामहिमा है।
पार्वती ! इस प्रकार मैंने भृडिग्रिटि के सामने जो पापनाशक कथा कही थी, वही यहाँ तुमसे भी कही हैं नर हो या नरी अथवा कोई भी क्यों ने हो, इस दसवें अध्याय के श्रवणमात्रसे उसे सब आश्रमों के पालनका फल प्राप्त होता है।

दसवाँ अध्याय

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी बोले, हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन श्रवण कर जो की मैं तुझ अतिशय प्रेम रखनेवाले के लिये हितकी इच्छा से कहूँगा। हे अर्जुन! मेरी उत्त्पति को अर्थात् विभूतिसहित लीलासे प्रकट होने को न देवतालोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओंका और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ। जो मेरेको अजन्मा अर्थात् वास्तव में जनमरहित और अनादि तथा लोकों का महान् ईश्वर तत्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। हे अर्जुन ! निश्चय करने की शक्ति एवं तत्वज्ञान और अमूढ़ता क्षमा, सत्य तथा इन्द्रियों का वशमें करना और मनका निग्रह तथा सुख, दुःख उत्पति और प्रलय एवं भय और अभय भी तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति ऐसे यह प्राणियों के नाना प्रकारके भाव मेरे से ही होते हैं । हे अर्जुन! सात तो महर्षिजन और चार उनसे भी पूर्वमें होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु, यह मेरे में भाववाले सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं कि जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है। जो पुरुष इस मेरी परमैश्रर्यरूप विभूतिको और योगशक्ति को तत्वसे जानता है वह पुरुष निश्रल ध्यानयोगद्वारा मेरे में ही एकीभावसे स्थित होता है, इसमें कुछ भी मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत्की उत्पति का कारण हूँ और मेरे से ही सब जगत् चेष्टा करता है, इस प्रकार तत्वसे समझकर श्रद्धा और भक्तिसे युक्त हुए, बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्रश्वर को ही निरन्तर भजते हैं। वे निरन्तर मेरे में मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन सदा ही मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपस में मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं उन्हे निरन्तर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्वज्ञानरूप योग देता हूँ कि जिसे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं। हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के निलये ही मैं स्वयं उनके अन्तःकरण में एकीभावसे स्थित हुआ, अज्ञानसे उत्पन्न हुए अन्धकार को प्रकाशमय तत्वज्ञानरूप दीपकद्वारा नष्ट करता हूँ। ।

इस प्रकार भगवान् के वचनों को सुनकर अर्जुन बोले , हे भगवन् ! आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं, वैसे ही देवर्षि नारद तथा असित और देवलऋषि तथा महर्षि व्यास और स्वयं आप ही मेरे प्रति कहते हैं। हे केशव! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस समस्तको मैं सत्य मानता हूँ । हे भगवान् ! आपके लीलामय स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं। हे भूतों को उत्पन्न करने वाले ! हे भतों के ईश्वर ! हे देवों के देव! हे जगत! के स्वामी! हे पुरुषोंत्तम! आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं इसलिये हे भगवान् ! आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को सम्पूर्णता से कहने के लिये योग्य हैं कि जिन विभूतियों के द्वारा इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं। हे योगेश्रवर ! मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तर करना हुआ आपको जानूँ और हे भगवान्! आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं।
हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति को और परमैश्रर्यरूप विभूतिको फिर भी विस्तारपूर्वक कहिये, क्योंकि आपके अमृतमय बचनों को सुनते हुए मेरी तुप्ति नहीं होती हैं अर्थात् सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है।।

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले, हे कुरुश्रेष्ठ ! अब मै तेरे लिये अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानतासे कहूँगा, क्योंकि मेरे विस्तारका अन्त नहीं है। हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ। हे अर्जुन! मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु अर्थात् वामन-अवतार और ज्योतियेां में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायु देवताओं में मरीचिनामक वायुदेवता और नक्षत्रों मे नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ और इन्द्रियो में मन हूँ भूतप्राणियों में चेतनता अर्थात् ज्ञानशक्ति हूँ। मैं एकादश रूद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धनका स्वामी कुबेर हूँ और में आठ वसुओं में अग्रि हूँ तथा शिखरवाले पर्वतों में सुमेरू पर्वत हूँ। पुरोहितों में मुख्य अर्थात् देवताओं का पुरोहित बुहस्पति मेरे को जान तथा हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्वामिकार्तिक और जलाशयों में समुद्र हूँ हे अर्जुन! मैं महर्षियों में भृगु और वचनों में एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ तथा सब प्रकार के यज्ञों में जयपज्ञ और स्थिर रहनेवालों में हिमालय पहाड़ हूँ। सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष और देव-ऋषियों मं नारदमुनि तथा गन्धर्वो में चित्ररथ और सिद्धों में कपिलमुनि हूँ हे अर्जुन! तू घोड़ोमें अमृत से अत्पन्न होने वाला उच्चौःश्रवा नामक घोड़ा और हाथियों में एरावत नामक हाथी तथा मनुष्यों में राजा मेरे को ही जान हे अर्जुन! मैं शास्त्रों वज्र गौओं में कामधेनु हूँ और शास्त्रोंक्तरीतिसे संतानकी उत्तपति का हेतु कामदेव हूँ सर्पोे मं सर्पराज वासुकि हूँ मैं नागों में शेषनाग और चलचरो में उनाक अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरों में अर्यमानामक वित्रेश्रर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ हे अर्जुन! मैं दैत्यों में प्रहलाद और गिनती करनेवालो में समय हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरूड मैं हूँ।
मैं पवित्र करनेवालों में वायु और शस्त्रधारियो में राम हूँ तथा मछलियों में मगरमच्छ हूँ और नदियों में श्रीभागीरथी गडग् हूँ।।

हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ तथा मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थातृ ब्रह्मविद्या एवं परस्पर में विवाद करने वालों में तत्वनिर्णयके लिये किया जानेवाला वाद हूँ मैं अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व नामक समास हूँ तथा अक्षर काल अर्थात् कालका भी महाकाल और विराट्स्वरूप सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ हे अर्जुन! मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे होनेवालों की उत्त्पति का कारण हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति श्री, वाक् स्मुति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ तथा मैं गायन करने योग्य श्रुतियों में बृहत्साम और छन्दों में गायत्री छन्द तथा महीनों में मार्गशीर्षका महीना और ऋतुओंमें वसन्त ऋतु मैं हूँ। हे अर्जुन! मैं छल करने वालो मेंजुआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ तथा मैं जीतने वालों की विजय हूँ और निश्रय करने वालों का निश्रय एवं सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ वृष्धिवंशियो में वासुदेव अर्थात मैं स्वंय तुम्हारा सखा और पाण्डवों में धनज्य अर्थात् तू एवं मुनियो में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ और दमन करने वालों का दण्ड अर्थात् दमन करने की शक्ति हूँ जीतने की इच्छावालों की नीति हूँ और गोपनीयो में अर्थात् गुप्त रखने योग्य भावों में मौन हूँ तथा ज्ञानवानों का तŸवज्ञान मैं ही हूँ और हे अर्जून! जो सब भूतों की उत्त्पति का कारण है, वह भी मैं ही हूँः क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है कि जो मेरे से रहित होवे, इसलिये सब कुछ मेरा ही स्वरूप है हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, यह तो मैंने अपनी विभूतियो का विस्तार तेरे लिये एकदेश से अर्थात् संक्षेपसे कहा है। इसलिये हे अर्जुन! जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थातृ ऐश्वर्य युक्त एवं कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तु मेरे तेज के अंशसे ही उत्पन्न हुई जान। अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है, मैं इस सम्पुर्ण जगत्को अपनी योगमायाके एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ, इसलिये मेरे को ही तत्व से जानना चाहिये।।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘विभूतियोग’’ नामक दसवाँ अध्याय।।

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