श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय को “ज्ञान-विज्ञान योग” कहा जाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने भक्ति के साथ-साथ तत्वज्ञान एवं विज्ञान का विस्तृत वर्णन किया है। इसके माहात्म्य को स्कन्द पुराण एवं अन्य ग्रंथों में अत्यधिक महिमामय बताया गया है। (श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें अध्यायका माहात्म्य ||Srimad Bhagavad Gita Seventh Chapter Mahatmya)
भगवान् शिव कहते हैं- पार्वती ! अब मैं सातवें अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनकर कानों में अमृत-राशि भर जाती है। पाटलिपुत्र नामक एक दूर्गम नगर है, जिसका गोपूर (द्वार) बहुत ही ऊँचा है। उस नगर में शडकुकर्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था, उसने वेश्य-वृत्त का आश्रय लेकर बहुत धन कमाया, किंतु न तो कभी पितरोंका तर्पण किया ओर न देवताओं का पूजन ही। वह धनोपार्जनमें तत्पर हो कर राजाओं को ही भोज दिया करता था। एक समयकी बात है, उस ब्राह्मणने अपना चौथा विवाह करने के लिये पुत्रों और बन्धुओं के साथ यात्रा की । मार्ग में आधी रात के समय ज बवह सो रहा था, एक सर्पने कहीं से आकर उसकी बाँहमें काट लिया। उसके काटते ही ऐसी अवस्था हो गयी कि मणि, मन्त्र और ओषधि आदिसे भी उसके शरीर की रक्षा असाध्य जान पड़ीं तत्पश्रात कुछ ही क्षणें में उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। फिर बहुत समये के बाद वह प्रेत सर्प-योनि में उत्पन्न हुआ। उसका चित्त धनकी वासना में बँधा था। उसने पूर्व -वृत्तान्त को स्मरण करके सोचा- मैंने जो घरके बाहर करोड़ों की संख्या में अपना धन गाड़ रखा है, उससे इन पुत्रों को वचित करके स्वयं ही उसकी रक्षा करूँगा। एक दिन साँप् की योनि से पीड़ित होकर पिताने स्वप्न में अपने पुत्रों के समक्ष आकर अपना मनोभाव बताया, तब उसके निरकुश पुत्रो ने सबेरे उठकर बडे विस्मय के साथ एक-दूसरे से स्वप्न की बातें कहीं। उनमें से मझला पुत्र कुदाल हाथ में लिये घरसे स्थान पर गया। यद्यपि उसे धनके स्थानका ठीक-ठीक पता नहीं था तो भी उसने चिन्हों से उसका ठीक निश्चय कर लिया और लोभबुद्धि से वहाँ पहुँचकर बाँबी को खोदना आरम्भ किया। तब उस बाँबसे बड़ा भयानक साँप् प्रकट हुआ और बोला – ओ मूढ़ तू कौन है, किसलिये आया है, क्यों बिल खोद रहा है, अथवा किसने तुझे भेजा है? ये सारी बातें मेरे सामने बता।
पुत्र बोला- मैं आपका पुत्र हूँ। मेरा नाम शिव है। मैं रात्रिमें देखे स्वप्न से विस्मित होकर यहाँका सुवर्ण लेने के कौतूहलसे आया हूँ।
पुत्रकी यह वाणी सुनकर वह साँप् हँसता हुआ उच्च स्वर से इस प्राकर स्पष्ट वचन बोला- यदि तू मेरा पुत्र है तो मुझे शीध्र ही बन्धनसे मुक्त कर । मैं पूर्वजन्म के गाड़े हुए धन के ही लिये सर्पयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ।
पुत्र ने पूछा- पिताजी! आपकी मुक्ति कैसे होगी? इसाका उपाय मुझे कताइये; क्योंकि मैं इस रात में सब लोगों को छोडकर आपके पास आया हूँ।
पिताने कहा – बेटा ! गीता के अमृतमय सप्तम अध्याय को छोडकर मुझे मुक्त करने में तीर्थ, दान, और यज्ञ भी सर्वथा समर्थ नहीं हैं। केवल गीताका सातवाँ अध्याय ही प्राणियों के जरा-मृत्यु आदि दुःख को दूर करने वाला है। पुत्र ! मेरे श्राद्धके दिन सप्तम अध्यायका पाठ करने वाले ब्राह्मण को श्रद्धापूर्वक भोजन कराओं। इससे निःसन्देह मेरी मुक्ति हो जायगी। वत्स! अपनी शक्ति के अनुसार पूर्ण श्रद्धा के साथ वेद-विद्या में प्रवीण अन्य ब्राह्मणों को भी भोजन कराना।
सर्पयोनि में पड़े हुए पिता के ये वचन सुनकर सभी पुत्रों ने उसकी आज्ञाके अनुसार तथा उससे भी अधिक किया। तब शडकर्णने अपने सर्पशरीर को त्यागकर दिव्य देह धारण किया और सारा धन पुत्रों के अधीन कर दिया। पिताने करोड़ों की संख्या में जो धन बाँटकर दिया था, उससे वे सदाचारी पुत्र बहुत प्रसन्न हुए। उनकी बुद्धि धर्म में लगी हुई थी; इसलिये उन्होंने बावली, कुआँ, पोखरा, यज्ञ तथा देवमन्दिर के लिये उस धनका उपयोग किया और अन्न शाला भी बनवायी। तत्पश्रातृ सातवें अध्यायका सदा जप करते हुए उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। पार्वती ! यह तुम्हें सातवे अध्यायका माहात्म्य बताया गया है; जिसके श्रवणमात्र से मानव सब पातकों से मुक्त हो जाता है।।
सातवाँ अध्याय
उसके उपरान्त श्रीकष्णभगवान् बोलें, हे पार्थ! तू मेरे में अनन्य प्रेमसे आसक्त हुए मनवाला और अनन्य भावसे मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ मुझे को सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्रर्व्य गुणों से युक्त सबका आत्मरूप जिस प्रकार संशयरहित जानेगा। उसको सुन। मैं तेरे लिये इस रहस्यसहित तत्वज्ञान को सम्पूर्णता से कहूँगा कि जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहता हैं हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्ति के लिये यत्र करता है और उन यत्र करनेवाले योगियों भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरे को तत्वसे जानता है अर्थात् यर्थात् मर्मसे जानता है। हे अर्जुन! पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार भी ऐसे यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा है अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति हे और हे महाबाहो! इससे दूसरी को मेरी जीवरूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति जान कि जिस.से यह सम्पूर्ण जगत् किया जाता है। हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पति वाले है और मैं सम्पूर्ण जगत्का उत्पति तथा प्रलयरूप हूँ अर्थात् जगत का मूल कारण हूँ। इसलिये हे धनज्य ! मेरे से सिवा किन्नम भी दूसरी वस्तु नहीं है, यह सम्पूर्ण जगत् सूत्रमें सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गुँथा हुआ है।
हे अर्जुन! जलमें मैं रस हूँ तथा चन्द्रमा और सूर्यमें प्रकाश हूँ और सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ तथा आकश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ पृथ्वी में पवित्र गन्ध और अग्रि में तेज हूँ और सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ अर्थात् जिससे वे जीते हें, वह मैं हूँ और तपस्वियों में तप हूँ हे अर्जुन ! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही जान, मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियो का तेज हूँ। हे भरत श्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कानाओं से रहित बल अर्थातृ सार्म्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात् शास्त्र के अनुकूल काम हूँ और भी जो सŸवगुण से उत्पत्र होनेवाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होनेवाले भाव हैं, उन सबको तू मेरे से ही होने वाले हैं, ऐसा जान, परंतु वास्तवमें उनमें मैं और वे मेरे में नहीं हैं। गुणों क कार्यरूप सात्तवक, राजस और तामस – इन तीनों प्रकार के भावोंसे अर्थात् राग-द्वेषदि विकारो से और सम्पूर्ण विषयो से यह सब संसार मोहित हो रहा है, इसलिये इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशीको तत्वसे नहीं जानता । क्यांेकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्धुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरुष मेरे को ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाको उल्डग्न कर जाते हैं अर्थातृ संसार से तर जाते हैं ऐसा सुगम उपाय होनेपर भी मायाद्वारा हरे हुए ज्ञानवाले और आसुरी स्वभावको धारण किये हुए तथा मनुष्यों में नीच और दूषित कर्म करनेवाले मूढलोग तो मेरे को नहीं भजते हैं। हे भरतवंशियों मे श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्मवाले अर्थार्थी आर्त जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थातृ निष्कामी ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मेरे को भजते हैं। उनमें भी नित्य मेरे में एकीभावसे स्थित हुआ अनन्य प्रेम-भक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम से जानने वाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मेरे को अत्यन्त प्रिय है। यद्यपि ये सब ही उदार है। अर्थात् श्रद्धासहित मेरे भजन के लिये समय लगानेवाले होने से उत्तम हैं; परंतु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है, क्योकि वह स्थिरबुद्धि ज्ञानी भक्त अति गतिस्वरूप मेरे में ही अच्छी प्रकार स्थित है। जो बहुत जन्मों के अन्त के जन्म मे तत्वज्ञानीको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात् वासुदेव के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं, इस प्रकार मेरे को भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।
हे अर्जुन! जो विषयासक्त पुरुष हैं वे तो अपने स्वाभावसे प्रेरे हुए तथा उन-उन भोगों की कामना द्वारा ज्ञान से भ्रष्ट हुए उस-उस नियम को धारण करके अर्थातृ जिस देवता की पूजा के लिये जो-जो नियम लोक में प्रसिद्ध है उस-उस नियमको धारण करके अन्य देवता ओं को भजते हैं अर्थात् पूजते है। जो-जो सकामी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूपा को श्रद्धासे पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँं वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त हुआ उस देवता के पूजनकी चेष्टा करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त होता है परंतु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान् है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, शेषमें वे मेरे को ही प्राप्त होते है।।
ऐसा होने पर भी सब मनुष्य मेरा भजन नहीं करते, इसका कारण यह है कि बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अर्थात् अजन्मा, अविनाशी हुआ भी अपनी मायासे प्रकट होता हूँ, ऐसे प्रभावको तत्व से न जानते हुए मन, इन्द्रियोंसे परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्यकी भाँति जन्म कर व्यक्तिभावको प्राप्त हुआ मानते हैं। अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसलिये यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्मा को तत्व से नहीं जानता है अर्थात् मेरे को जन्मने-मरनेवाला समझता है। हे अर्जुन! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे हेाने वाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परंतु मेरेको कोई भी श्रद्धाभक्तिरहित पुरुष नहीं जानता ।। क्योंकि हे भरतवंशी अर्जुन! संसार में इन्छा और द्वेषसे उत्पन्न हुए सुख-दुःखादि द्वन्द्वरूप मोहसे सम्पूर्ण प्राणी अति अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं पंरतु निष्काम भावसे श्रेष्ठ कमों का आचरण करनेवाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेषादि द्वन्द्वरूप मोहसे मुक्त हुए और दृढ़ निश्रय वाले पुरुष मेरे को सब प्रकार से भजते हैं। जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिये यऩ् करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्मको तथा सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जानते हैं। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैवके सहित तथा अधियज्ञ के सहित सबका आत्मरूप मेरे को जानते हैं अर्थात् जैसे भाप, बादल , धुप, पानी और बर्फ यह सभी जलस्वरूप हैं, वैसे ही अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ आदि सब कुछ वासुदेवस्वरूप हैं, ऐसे जो जानते हैं, वे युक्तचित्त वाले पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त हेाते हैं।।
इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘ज्ञानविज्ञानयोग’’ नामक सातवाँ अध्याय।।
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