सोमवार, जुलाई 7, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके चौदहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Fourtheen Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता का चौदहवाँ अध्याय “गुणत्रयविभागयोग” कहलाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने तीन गुणों—सात्त्विक, राजसिक और तामसिक—का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। यह अध्याय आत्मा की उन्नति और मोक्ष-प्राप्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीताके चौदहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Fourtheen Chapter Mahatmya

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब मैं भव-बन्धन से छुटकारा पाने के साधन भूत चौदहवेें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो। सिंहलद्वीप में विक्रम बेताल नामक एक राजा थे, जो सिंह के समान पराक्रमी और कलाओं के भण्डार थे। एक दिन वे शिकार खेलने के लिये उत्सुक होकर राजकुमारों सहित दो कुतियों को साथ लिये वनमें गये। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने तीव्र गति से भागते हुए खरगोश के पीछे अपनी कुतिया छोड़ दी। उस समय सब प्राणियो के देखते-देखते खरगोश इस प्रकार भागने लगा मानो कहीं उड़ गया हो। दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जाने के कारण वह एक बड़ी खंदक (गहरे गड़हे) – में गिर पड़ा। गिर ने पर भी वह कुतिया के हाथ नहीं आया और उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँका वातावरण बहुत ही शान्त था। वहाँ हरिन निर्भय होकर सब ओर वृक्षोकी छाया में बैठे रहते थे। बंदर भी अपने-आप टूटकर गिरे हुए नारियल के फलों और पके हुए आमों से पूर्ण तृप्त रहते थे। वहाँ सिंह हाथीयों के बच्चों के साथ खेलते और साँप निडर होकर मोरकी पाँखों में घुस जाते थे। उस स्थानपर एक आश्रम के भीतर वत्स नामक मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय एवं शान्त-भावसे निरन्तर गीता के चौदहवें अध्यायका पाठ किया करते थे। आश्रम के पास ही वत्समुनि के किसी शिष्यने अपना पैर धोया था, (ये भी चौदहवें अध्याय का पाठ करने वाले थे।) उसके जलसे वहाँ की मिट्टी गीली हो गयी थी। खरगोश का जीवन कुछ शेष था। वह हाँफता हुआ आकर उसी कीचड़ में गिर पड़ा। उसके स्पर्शमात्र से ही खरगोश दिव्य विमानपर बैठकर स्वर्गलोक को चला गया। फिर कुतिया भी उसका पीछा करती हुई आयी। वहाँ उसके शरीरमें भी कुछ कीचड़के छींटे लग गये। फिर भूख-प्यास की पीड़ा से रहित हो कुतिया का रूप त्यागकर उसने दिव्याडग्ना का रमणीय रूप धारण कर लिया तथा गन्धर्वों से सुशोभित दिव्य विमानपर आरूढ़ हो वह भी स्वर्गलोक को चली गयी। यह देख मुनि के मेधावी शिष्य स्वकन्धर हँसने लगे। उन दोनों के पूर्वजन्म के वैरका कारण सोचकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ था। उस समय राजा के नेत्र भी आश्रय से चकित हो उठे। उन्होंने बड़ी भक्ति के साथ प्रणाम करके पूछा – विप्रवर ! नीच योनि में पड़े हुए दोनों प्राणी- कुतिया और खरगोश ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्ग में चले गये- इकसा क्या कारण है ? इसकी कथा सुनाइये।

शिष्य ने कहा – भूपाल! इस वन में वत्स नामक ब्राह्मण रहते हैं। वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा हैं; गीता के चौदहवें अध्याय का सदा जब किया करते हैं। मैं उन्हीं का शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्मविद्या में विशेषज्ञता प्राप्त की है। गुरुजीकी ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्याय का प्रतिदिन जप करता हूँ। मेरे पैर धोने के जल में लोटने के कारण यह खरगोश कुतिया के साथ ही स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ है। अब मैं अपने हँसने का कारण बताता हूँ। महाराष्ट्र में प्रत्युदक नामक महान् नगर है, वहाँ केशव नामका एक ब्राह्मण रहता था, जो कपटी मनुष्यों में अग्रगण्य था। उसकी स्त्रीका नाम विलोभना था। वह स्वच्छन्द विहार करने वाली थी। इसे क्रोध में आकर जन्म भर के वैरको याद करके ब्राह्मण ने अपनी स्त्री का वध कर डाला और उसी पापसे उसको खरगोश की योनि में जन्म मिला। ब्राह्मणी भी आने पाप के कारण कुतिया हुई।
श्रीमहादेव जी कहते हैं- यह सारी कथा सुनकर श्रद्धालू राजा ने गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ आरम्भ कर दिया । इससे उन्हें परमगतिकी प्राप्ति हुई।

चौदहवाँ अध्याय

उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन! ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञानको मैं फिर भी तेरे लिये कहूँगा कि जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसारसे मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं। हे अर्जुन ! इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात् धारण करके मेरे स्वरूपको प्राप्त हुए पुरुष सृष्टिके आदिमें पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते है; क्योंकि उनकी दृष्टिमें मुझ वासुदेव से भिन्न कोई वस्तु है ही नहीं हे अर्जुन! मेरी महत् ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात् गर्भाधानका स्थान है और मैं उस योनि में चेतनरूप बीजको स्थापन करता हूँ। उस जड़ चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पति होती है। हे अर्जुन ! नाना प्रकारकी सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात् शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयी माया तो गर्भको धारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करनेवाला पिता हूँ।।

हे अर्जून ! सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण ऐसे यह प्रकृतिसे उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं।। हे निष्पाप ! उन तीनों गुणों मे प्रकाश करने वाला , निर्विकार सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण सुखकी आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से अर्थात् ज्ञान के अभिमानसे बाँधता है। हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान, वह इस जीवात्मा को कर्मों को और उनके फलकी आसक्ति से बाँधता है। और हे अर्जुन! सर्वदेहाभिमानियों के मोहने वाले तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान, वह इस जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बाँधता है। क्योंकि हे अर्जुन! सत्वगुण सुखमें लगाता है और रजोगुण कर्ममें लगाता है तथा तमोगुण तो ज्ञानको आच्छादन करके अर्थात् ढकके प्रमाद में भी लगाता है और हे अर्जुन ! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सŸवगुण होता है अर्थातृ बढ़ता है तो रजोगुण और सत्वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है, वैसे ही तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है इसलिये जिस कालमें इस देहमें तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और बोधशक्ति उत्पन्न होती है, उस कालमें ऐसा जानना चािहऐ कि सत्वगुण बढ़ा है। और हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ और प्रविति अर्थातृ सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मोंका स्वार्थबुद्धि से आरम्भ एवं अशन्ति अर्थातृ मनकी चंन्लता और विषयभोगो की लालसा, यह सब उत्पन्न होते हैं। तथा हे अर्जुन! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्यकर्मो में अप्रवृति और प्रमाद अर्थातृ व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ यह सब ही उत्पन्न होते हैं।

हे अर्जुन! जब यह जीवत्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के मलरहित अर्थातृ दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है रजोगुण के बढ़ने पर, अर्थात् जिस कालमें रजोगुण बढ़ता है उस कालमें मृत्युको प्राप्त होकर, कर्मों की आसक्तिवाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष कीट, पशु आदि मू़ढ़ योनियों में होता हैं क्योंकि सात्वक कर्मका तो सात्वक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है और कर्मका फल दुःख एवं तामस कर्मका फल अज्ञान कहा है। सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता और रजोगुण से निःसंदेह लोभ उत्पन्न होता है तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और आज्ञान भी होता हैं इसलिय सŸवगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं और रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थातृ मनुष्यलोक में ही रहते हैं एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित हुए तामस पुरुष अधोगतिको अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियों को प्राप्त होते हैं।

हे अर्जुन ! जिस कालमें द्रष्टा अर्थात् समष्टि-चेतन में एकीभावसे स्थित हुआ साक्षी पुरुष तीनों गुणों के सिवा अन्य अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात् गुण ही गुणों में बर्तते हैं। ऐसा देखता है और तीनों गुणों से अति परे सच्चिदानन्दघनन्स्वरूप मुझ परमात्मा को सत्वसे जानता है, उस कालमें वह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पति के कारण तीनों गुणों को उलग्न करके जम्न, मृत्यु वृद्धावस्था और सब प्रकार के दृखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है। इस प्रकार भगवान् के रहस्ययुक्त बचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम ! तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन-नि लक्षणों से युक्त होता है? और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है तथा हे प्रभो! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है?

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्णीागवान् बोले, हे अर्जुन! जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवुति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोहको भी न तो प्रवृत होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकंक्षा करता है तथा जो साक्षीके सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है और गुण ही ही गुनो में बर्तते हैं ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकी भाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता हैं जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित हुआ दुःख सुखको समान समझने वाला है तथा मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण में समान भाववाला और धैर्यवानृ है तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है। तथा जो मान और अपनामन में सम है एवं मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है, वह सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को निरन्तर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्छी प्रकार उलघन करके सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें एकीभाव होने के लिये योग्य होता है। हे अर्जुन ! उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृत का तथा नित्यधर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका मैं ही आश्रय हूँ अर्थात् उपर्युक्त ब्रह्म, अमृत, अव्यय और शाश्रतधर्म तथा ऐकान्तिक सुख, यह सब मेरे ही नाम हैं, इसलिये इनका मैं परम आश्रय हूँ।।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘ गुणत्रयविभागयेाग’’ नामक चौदहवाँ़ अध्याय।।

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