गीता माहात्म्य का अर्थ है गीता के महत्व और महिमा का वर्णन। श्रीमद्भगवद्गीता हिंदू धर्म के पवित्रतम ग्रंथों में से एक है, जिसे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्धक्षेत्र में अर्जुन को उपदेश दिया था। यह जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझाने वाली दिव्य ज्ञानगंगा है। ( श्रीमद्भगवद्गीता – पहला अध्याय (अर्जुन विषाद योग) माहात्म्य Srimad Bhagavad Gita – First Chapter (Arjuna Vishad Yoga) Greatness)
पहला अध्याय माहात्म्य
धृतराष्ट्र बोले, हे सञ्जय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ।। इसपर सञ्जय बोले, उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवोंकी सेना को देखकर और द्रोणाचर्य के पास जाकर यह वचन कहा- ||
हेे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्रद्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रोंकी इस बड़ी भारी सेनाकी देखिये ।।
इस सेनामें बड़े-बड़े धनुषों वाले युद्धमें भीम और अर्जुनके समान बहुत-से शूरवीर हैं, जैसे सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद। और धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य। और पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं।
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! हमारे पक्षमें भी जो-जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये, आपके जाननेके लिये मेरी सेनाके जो-जो सेनापति हैं, उनको कहता हूँ।। एक तो स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्रत्थामा, विकर्ण और सोमदत्तका पुत्र भूरिश्रवा।। तथा और भी बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकारके शस्त्र-अस्त्रों से युक्त मेरे लिये जीवन की आशा को त्यागनेवाले सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं। भीष्मपितामहद्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकारसे अजेय है और भीमद्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतनेमें सुगम है। इसलिये सब मोर्चोपर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सब-के-सब निःसन्देह भीष्मपितामहकी ही सब ओरसे रक्षा करें। इस प्रकार द्रोणाचार्यसे कहते हुए दुर्योधन के वचनों को सुनकर कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्मने उस दुर्योंधन के हृदय में उत्पन करते हुए उच्च स्वरसे सिंह की नादके समान गर्जकर शख बजाया। उसके उपरान्त शख और नगारे तथा ढोल, मृदग और नृसिंहादि बाजे एक साथ ही बजे, उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ। उसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त रथमें बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुनने भी अलौकिक शख बजाये।
उनमें श्रीकृष्ण महाराजने प´जन्य नामक शख और अर्जुनने देवदत्त नामक शख बजाया, भयानक कर्मवाले भीमसेनने पौण्ड्र नामक महाशख बजाया। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक शख और नकुल तथा सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामवाले शख बजाये। श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी और धृष्टद्युम्र तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि तथा राजा दु्रपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु, इन सबने हे राजन्! अलग-अलग शख बजाये और उस भयानक शब्दने आकाश और पृथ्वी को भी शब्दायमान करते हुए धृराष्ट्र-पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिये।।
हे राजन्! उसके उपरान्त कपिध्वज अर्जुनने खडे़ हुए धृतराष्ट्र-पुत्रों को देखकर उस शस्त्र चलने की तैयारीके समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराजसे यह वचन कहा – हे अच्युत! मेरे रथको दोनों सेना ओं के बीचमें खड़ा करिये। जबतक मैं इन स्थित हुए युद्धकी कामनावालोंकी अच्छी प्रकार देख लूँ कि इस युद्धरूप व्यापारमें मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है। दुर्बुद्धि दुर्योधनका युद्ध में कल्याण चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेनामें आये हैं, उन युद्ध करनेवालोंको मैं देखूँगा।
सजय बोले, हे धृतराष्ट्र! अर्जुनद्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्रने दोनो सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने और सम्पूर्ण राजाओ के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके ऐसे कहा कि हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कौरवों को देख उसके उपरान्त पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनो ही सेनाओं में स्थित हुए पिता के भाइयों को, पितामहों को, आचार्यों को, मामोंको, भाइयोंको, पुत्रोंको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको, और सुहृदोंको भी देखा। इस प्रकार उन खडे़ हुए सम्पूर्ण बन्धुओंको देखकर वे अन्यन्त करुणासे युक्त हुए कुन्तीपुत्र अर्जुन शोक करते हुए यह बोले।
हे कृष्ण! इस युद्धकी इच्छावाले खडे़ हुए स्वजनसमुदायको देखकर मेरे अग्ड॰ शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है और मेरे शरीरमें कम्प तथा रोमा´ होता है। तथा हाथसे गाण्डीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहनेको भी समर्थ नहीं हुँ। हे केशव! लक्षणोको भी विपरीत ही देखता हूँ तथा युद्धमें अपने कुलको मारकर कल्याण भी नहीं देखता हे कृष्ण! मैं विजय नहीं चाहता और राज्य तथा सुखोंको भी नहीं चाहता, हे गोविन्द! हमें राज्यसे क्या प्रयोजन है अथवा भोगोंसे और जीवनसे भी क्या प्रयोजन है। क्योंकि हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादिक इच्छित हैं, वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्धमें खड़े हैं। जो कि गुरुजन, ताउ चाचे लड़के और वैसे ही दादा, मामा, ससूर, पोते, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं। इसलिये हे मधुसूदन! मुझे मारनेपर भी अथवा तीन लोकके राज्यके लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है। हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों के मारकर भी हमें क्या प्रसन्ता होगी, इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। इससे हे माधव! अपने बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि अपने कुटुम्बको मारकर हम कैसे सुखी होंगे। यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुलके नाशकृत दोषको और मित्रों के साथ विरोध करने में पाप को नहीं देखते हैं। परंतु हे जनार्दन! कुल के नाश करनेसे होते हुए दोष को जाननेवाले हमलोगों को इस पास से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करता चाहिये। क्योंकि कुल के नाश होने से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्मके नाश होने से सम्पूर्ण कुल को पाप भी बहुत दबा लेता है तथा हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जानेसे कुलकी स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय ! स्त्रिों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पत्र होता हैं और वह वर्णसंकर कुलघातियों को और कुलको नरकमें ले जाने के लिये ही होता है। लोप हुई पिण्ड और जलकी क्रियावाले इनके पितरलोग भी गिर जाते है। और इन वर्णसंकर-कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते है। तथा हे जनार्दन! नष्ट हुए कुलधर्मवाले मनुष्यों का अनन्त कालतक नरकमें वास होता है, ऐसा हमने सुना है।
अहो! शोक है कि हमलोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करनेको तैयार हुए है जो कि राज्य और सुखके लोभसे अपने कुलको मारनेके लिये उद्यत हुए हैं। यदि मुझ शस्त्ररहित, न सामना करनेवाले को शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र रणमें मारें तो वह मारना भी मेरे लिये अति कल्याणकारक होगा।।
सजय बोले- रणभूमि में शोकसे उद्विग्र मनवाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाणसहित धनुषको त्यागकर रथके पिछले भाग में बैठ गये।।
इति श्रीमद्धगवद्रीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रहविद्या तथ योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादमें ‘‘अर्जुनविषादयोग’’ नामक पहला अध्याय।।
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