सोमवार, जुलाई 7, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Eleventh Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय को विश्वरूप दर्शन योग कहा जाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने दिव्य विश्वरूप का दर्शन कराया, जिससे अर्जुन की भक्ति, श्रद्धा और समर्पण भाव और भी गहरा हो गया। यह अध्याय भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इसमें भगवान की अपार महिमा, अनंत रूप और उनकी सर्वव्यापकता का वर्णन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Eleventh Chapter Mahatmya

श्रीमहादेवजी कहते हैं- प्रिये ! गीता के वर्णन से सम्बन्ध रखने वाली कथा एवं विश्ररूप अध्याय के पावन माहात्म्य को श्रवण करो। विशाल नेत्रों वाली पार्वती! इस अध्याय के माहात्म्य का पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके सम्बन्ध में सहस्त्रों कथाएँ हैं। उनमें से एक यहाँ कही जाती है। प्रणीता नदी के तटपर मेघडक्र नामसे विख्यात एक बहुत बड़ा नगर हैं। उसके प्राकार (चहारदिवारी) और गोपुर (द्वार) बहुत बहुत ऊँचे हैं। वहाँ बड़ी-बड़ी विश्रामशालाएँ हैं, जिन में सोने के खंभे शोभा दे रहे हैं। उस नगर में श्रीमान्, सुखी, शान्त, सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्यों का निवास है। वहाँ हाथ में शाडगर नामक धनुष धारण करने वाले जगदीश्रवर भगवान् विष्णु विराजमान हैं। वे परब्रह्म के साकार स्वरूप हैं, संसार के नेत्रों को जीवन प्रदान करने वाले हैं। उनका गौरवपूर्ण श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी के नेत्र-कमलों द्वारा पूजित होता है। भगवान् की वह झाँकी वामन-अवतार की है। मेघ के समान उनका श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है। वक्षःस्थल पर श्रीवत्सका चिन्ह शोभा पाता है। वे कमल और वनमाला से विभूषित है। अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हो भगवान् वामन रत्नयुक्त समुद्र के सदृश जान पड़ते है। पीताम्बर से उनके श्याम विग्रह की कान्ति ऐसी प्रतीत होती है, मानो चमकती हुई बिजली से घिरा हुआ स्त्रिग्ध मेघ शोभा पा रहा हो। उन भगवान् वामनका दर्शन करके जीव जन्म एवं संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है। उस नगर में मेखला नामक महान् तीर्थ है, जिसमें स्त्रान करके मनुष्य शाश्रत वैकुण्ठधााम को प्राप्त होता है। वहाँ जगत् के स्वामी करुणासागर भगवान् नृसिंह का दर्शन करने से मनुष्य सात जन्मों के किये हुए घोर पाप से छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य मेखला में गणेश जी का दर्शन करता है, वह सदादुस्तर विघ्रों के भी पार हो जाता है।
उसी मेघड्ढर नगर में कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्यपरायण, ममता और अहंकार से रहित, वेद-शास्त्रों में प्रवीण, जितेन्द्रिय तथा भगवान् वासुदेव के शरणागत थे। उनका नाम सुनन्द था। प्रिये ! वे शाडगर र््धनुष धारण करने वाले भगवान् के पास गीता के ग्यारह वें अध्याय – विश्ररूपदर्शनयोगा का पाठ किया करते थे। उस अध्याय के प्रभावसे उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी। परमानन्द-संदोहसे पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधि के द्वारा इन्द्रियों के अन्तर्मुख् हो जाने के कारण वे निश्चल स्थिति को प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन्मुक्त योगी की स्थिति में रहते थे। एक समय जब बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित थे, महायोगी सुनन्दने गोदावरीतीर्थ की यात्रा आरम्भ की। वे क्रमशः विरजतीर्थ, तारातीर्थ, कपिला संगम, अष्टतीर्थ, कपिलाद्वार, नृसिंहवन, अम्बिकापूरी तथा करस्थानपुर आदि क्षेत्रों में स्नान और दर्शन करते हुए विवाहमण्डप नामक नगर में आये। वहाँ उन्होंने प्रत्येक घरमें जाकर अपने ठहर ने के लिये स्थान माँगा, परंतु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला। अन्त में गाँव के मुखियाने उन्हें एक बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दी। ब्राह्मण ने साथियों सहित उसके भीतर जाकर रात में निवास किया। सबेरा होने पर उन्होंने अपने को तो धर्मशाला के बाहर पाया, किंतु उनके और साथी नहीं दिखायी दिये। वे उन्हें खोजने के लिये चले, इतने में ही ग्रामपाल (मुखिये) से उनकी भेंट हो गयी। ग्रामपाल ने कहा – मुनिश्रेष्ठ ! तुम सब प्रकार से दीर्घायु जान पड़ते हों। सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान् पुरुष में तुम सब से पवित्र हो। तुम्हारे भीतर कोई लोकोत्तर प्रभाव विद्यामान है। तुम्हारे साथी कहाँ गये? और कैसे इस भवनसे बाहर हुए? इसका पता लगाओं। मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे-जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई नहीं दिखायी देता। विप्रवर! तुम्हें किस महामन्त्रका ज्ञान है? किस विद्याका आश्रय लेते हो किस देवता की दया से तुम्हें अलौकिक शक्ति आ गयी है? भगवान् ! कृपा करके इस गाँव में रहो। मैं तुम्हारी सब सेवा-शुश्रूषा करूँगा।
यों कहकर ग्रामपाल ने मुनीश्रर सुनन्द को अपने गाँव मे ठहरा लिया। वह दिन-रात बड़ी भक्ति से उनकी सेवा टहल करने लगा। जब सात-आठ दिन बीत गये, तब एक दिन प्रातःकाल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्मा के सामने रोने लगा और बोला – ‘हाय! आज रातमें राक्षस ने मुझ भाग्यहीन के बेटेको चबा लिया है। मेरा बड़ा ही गुणवान् और भक्तिमान् था। ग्रामपाल के इस प्रकार कहने पर योगी सुनन्द ने पूछा – कहाँ है वह राक्षस ? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्रका भक्षण किया है ?

ग्रामपाल बोला – ब्रह्मन्! इस नगर में एक बड़ा भयंकर नरभक्षी राक्षस रहता है। वह प्रतिदिन आकर इस नगर के मनुष्य को खा लिया करता था। तब एक दिन समस्त नगरवासियों ने मिलकर उससे प्रार्थना की – ‘राक्षस ! तुम हम सब लोगों की रक्षा करो। हम तुम्हारे लिये भोजनकी व्यवस्था किये देते हैं। यहाँ बाहर के जो पथिक रात में आकर नींद लेने लगें, उनको खा जाना। इस प्रकार नागरिक मनुष्यों ने गाँव के (मुझ) मुखिया द्वारा इस धर्मशाला में भेजे हुए पथिकों को ही राक्षस का आहार निचित किया। अपने प्राणों की रक्षा के लिये ही उन्हें ऐसा करना पड़ा । तुम भी अन्य राहगीरों के साथ इस घर में आकर सोये थे; किंतु राक्षस ने उन सबों को तो खा लिया, केवल तुम्हें छोड़ दिया है। द्विजोत्तम! तुममें ऐसा क्या प्रभाव है, इस बात को तुम्हीं जानते हो। इस समय मेरे पुत्र का एक मित्र आया था, किंतु में उसे पहचान न सका। वह मेरे पुत्रको बहुत ही प्रिय था, किंतु अन्य राहगीरों के साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशाला में भेज दिया। मेरे पुत्र ने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है, तब वह उसे वहाँ से ले आने के लिये गया; परंतु राक्षस ने उसे भी खा लिया। आज सबेरे मैंने बहुत दुःखी होकर उस पिशाच से पुछा – ओ दुष्टात्मन् ! तुने रात में मेरे पुत्रको भी खा लिया। तुम्हारे पेट में पड़ा हुआ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि हो ता बता।

राक्षस ने कहा- ग्रामपाल ! धर्मशाला के भीतर घुसे हुए तुम्हारे पुत्र के न जानने के कारण मैंने भक्षण किया है। अन्य पथिकों के साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजान में ही मेरा ग्रास बन गया है। वह मेरे उदर में जिस प्रकार जीवित और रक्षित रह सकता हैख् वह उपाय स्वयं विघाताने ही कर दिया है। जो ब्राह्मण सदा गीता के ग्यारहवें अध्यायका पाठ करता हो, उसके प्रभाव से मेरी मुक्ति होगी और मरे हुओं को पुनः जीवन प्राप्त होगा। यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, जिनको मैंने एक दिन धर्मशाले में बाहर कर दिया था। वे निरन्तर गीता के ग्यारहवें अध्यायका जप किया करते हैं। इस अध्याय के मन्त्र से सात बार अभिमन्मित्रत करके यदि वे मेरे ऊपर जलका छींटा दें निस्संदेह मेरा शापसे उद्धार हो जायगा।
इस प्रकार उस राक्षसका संदेश पाकर मैं तुम्हारें निकट आया हूँ। ब्राह्मणने पूछा – गा्रमपाल! जो रात में सोये हुए मनुष्यों को खाता है, वह प्राणी किस पाप से राक्षस हुआ है?

ग्रामपाल बोला – ब्रह्मन् ! पहले इस गाँव में कोई किसान ब्राह्मण रहता था। एक दिन दिन वह अगहनी के खेतकी क्यारियों की रक्षा करने में लगा थां वहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राही को मारकर खा रहा था। उसी समय एक तपस्वी कहींसे आ निकले , जो उस राहीको बचाने के लिये दूरसे ही दया दिखाते आ रहे थें। गिद्ध उस राही को खाकर आकाश में उड़ गया। तब तपस्वीने कुपित होकर उस किसान से कहा- ओ दुष्ट हलवाहे! तुझे धिकार है। तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी है। दूसरे की रक्षा से मुँह मोड़कर केवल पेट पालने के धंधे में लगा है। तेरा जीवन नष्टप्राय है। अरे! जो चोर, दाढ़वाले जीव, सर्प शत्रु, अग्रि,विष, जल, गीध , राक्षस भूत तथा बेताल आदि के द्वारा घायल हुए मनुष्यों की शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करता है, वह उनके वधका फल पाता है। जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदि के चंगुल में फँसे हुए ब्राह्मणको छुड़ाने की चेष्टा नहीं करता, वह घोर नकर में पड़ता और पुनः भेड़िये की योनि में जन्म लेता है। जो वन में मारे जाते हुए तथा गृध और व्याघ्र की दृष्टि में पड़े हुए जीवकी रक्षा के लिये ‘छोड़ों छोडों की पुकार करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। जो मनुष्य गौओं की रक्षा के लिये व्याध्र भील तथा दुष्ट राजाओ के हाथ से मारे जाते हैं, वे भगवान् विष्णुके उस परम पदको पाते हैं जो योगियों के लिये भी दुर्लभ है। सहस्त्र अश्रवमेघ और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणगत रक्षा की सोलहवी कला के बराबर भी नहीं हो सकते है। दीन तथा भयभीत जीवकी उपेक्षा करने से पुण्यवान् पुरुष भी समय आने पर कुम्भीपाक नामक नरक में पकाया जाता है। तुने गिद्ध के द्वारा खाये जाते हुए राही को देखकर उसे बचाने में समर्थ होते हुए भी जो इसकी रक्षा नहीं की, इससे तू निर्दयी जान पड़ता है, अतः तू राक्षस हो जा।

हलवाहा बोला – महात्मन् मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किंतु मेरे नेत्र बहुत देर से खेतकी रक्षा में लगे थे, अतः पास होने पर भी गिद्ध के द्वारा मारे जाते हुए उस मनुष्य को मैं नहीं जान सका। अतः मुझ दीनपर आपको अनुग्रह करना चाहिए।
तपस्वी ब्राह्मणने कहा – जो प्रतिदिन गीता के ग्यारह वें अध्याय का जप करता है, उस मनुष्य के द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तकपर पड़ेगा, उस समय तुम्हें शापसे छुटकारा मिल जायगा।
यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया; अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम चलों और ग्यारहवें अध्याय से तीर्थ के जलको अभिमन्त्रित करो। फिर अपने ही हाथ से उस राक्षस के मस्तकपर उसे छिड़क दो।।
ग्रामपाल को यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मणका हृदय करुणा से भर आया। वे बहुत अच्छा कहकर उसके साथ राक्षस के निकट गये। वे ब्राह्मण योगी थे। उन्होंने विश्ररूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्याय से जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षस के मस्तक पर डाला। गीता के ग्यारहवें अध्याय के प्रभाव से वह शापसे मुक्त हो गया। उसने राक्षस देहका परित्याग करके चतुर्भुजरूप धारण कर लिया तथा उसने जिन सहस्त्रों पथिकों का भक्षण किया था, वे भी शख चक्र एवं गदा धारण किये चतुर्भुरूप हो गये। तत्पश्रात् वे सभी विमानपर आरूढ़ हुए। इतने में ही ग्रामपाल ने राक्षससे कहा- ‘निशाचर ! मेरा पुत्र कौन है ? उसे दिखाओ। उसके यों कहने पर दिव्य बुद्धिवाले राक्षस ने कहा – ये जो तमाल के समान श्याम, चार भुजाधारी, माणिक्यमय मुकुटसे सुशोभित तथा दिव्य मणियों के बने हुए कुण्डलों से अलंकृत हैं, हार पहनने के कारण जिनके कंघे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोने के भुजबंदोंसे विभूषित कमल के समान नेत्रवाले स्त्रिग्धरूप तथा हाथ में कमल लिये हुए हैं और दिव्य विमानपर बैठकर देवत्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन्हीं को अपना पुत्र समझों । यह सुनकर ग्रामपाल ने उसी रूपमें अपने पुत्रकों देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा। यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा।

पुत्र बोला – ग्रामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुत्र हो चुके हो। पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किंतु अब देवता हो गया हूँ इन ब्राह्मण-देवता के प्रसाद से वैकुण्ठधामको जाऊँगा। देखों, यह निशाचर भी चतुर्भुजरूपको प्राप्त हो गया। ग्यारहवें अध्याय के माहात्म्य से यह सब लोगों के साथ श्रीविष्णुधामको जा रहा है; अतः तुम भी इन ब्राह्मणदेव से गीता के ग्यारहवें अघ्यायका अध्ययन करों और निरन्तर उसका जप करते रहों । इसमें संदेह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी। तात! मनुष्यों के लिये साधु पुरुषों का सडग् सर्वथा दुर्लभ है। वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है; अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो। धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और पूर्वकर्मो से क्या लेना है। विश्रूपाध्याय के पाठ से ही परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है। पुर्णन्नदसंदोहस्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्मके मुख से कुरुक्षेत्र में अपने मित्र अर्जुन के प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था, वही श्रीविष्णु का परम तात्तवका है। तुम उसीका चिन्तन करों ं। वह मोक्ष के लिये प्रसिद्ध रसायन है। संसार-भयसे डरे हुए मनुष्यों की आधि-व्याधिका विनाशक तथा अनेक जन्म के दुःखोंका नाश करने वाला है। मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधनको ऐसा नहीं देखता अतः उसीका अभ्यास करो।

श्रीमहादेवजी कहते हैं- यों कहकर वह सबके साथ श्रीविष्णुके परमधामको चला गया। तब ग्रामपालने ब्राह्मणके मुखसे उस अध्यायको पढ़ो फिर वे दोनो ही उसके माहात्म्यसे विष्णुधामको चले गये। पार्वती! इस प्रकार तुम्हें ग्यारह वे अध्यायकी माहात्म्य-कथा सुनयी हैं इसके श्रवणमात्र से महान् पातकों का नाश हो जाता है।।
ग्यारहवाँ अध्याय
इस प्रकार भगवान् के वचन सुनकर अर्जुन बोले – हे भगवान् ! मेरे पर अनुग्रह करने के लिये परम गोपनीय, अध्यात्मविषयक वचन अर्थात् उपदेश आपके द्वारा जो कहा गया, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है। क्योंकि हे कमलनेत्र ! मैंने भूतोंकी उत्पत्त और प्रलय आपसे विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपका अविनाशी प्रभाव भी सुना है। हे परमेश्रवर ! आप अपने को जैसा कहते हो यह ठीक ऐसा ही है; परंतु हे पुरुषोउत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य, और तेजयुक्त रूपकों प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ। इसलिये हे प्रभों! मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना शक्य है ऐसा यदि मानते हैं, तो हे योगेश्वर ! आप अपने अविनाशी स्वरूपका मुझे दर्शन कराइये।

इस प्रकार अर्जुन के प्रार्थना करने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले – हे पार्थ! मेरे सैकड़ों तथा हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा आकृतिवाले अलौकिक रूपों को देख। हे भरतवंशी अर्जुन! मेरे में आदित्यों को अर्थात् अदिति के द्वादश पुत्रों को और आठ वसुओं को, एकादश रूद्रों को तथा दोनों अश्रिनीकुमारों को और उनचास मरूद्रणों को देख तथा और भी बहुत-से पहिले न देखे हुए आश्रर्यमय रूपों को देख हे गुडाकेश अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित हुए चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता है, सो देखस परंतु मेरे को इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने को निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसीसे मैं तेरे लिये अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूँ, तू मेरे प्रभावको और योगशक्ति को देख।।
सञ्जय बोले, हे राजन्! महायोगेश्वर और सब पापों के नाश करेन वाले भगवान् ने इस प्रकार कहकर उसके उपरान्त अर्जुन के लिये परम ऐश्वययुक्त दिव्य स्वरूप दिखाया । उस अनेक मुख और नेत्रों से युक्त तथा अनेक अद्धुत दर्शनों वाले एवं बहुत से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत-से दिव्य शास्त्रों को हाथों में उठाये हुए। तथा दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किये हुए और दिव्य गन्धका अनुलेपन किये हुए एवं सब प्रकार के आश्रर्यों से युक्त, सीमारहित, विराट्स्वरूप परमदेव परमेश्रवर अर्जुन! ने देखा हे राजन्! आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न हुआ जो प्रकाश होवे; वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचितृ ही होवे ।। ऐसे आश्रर्यमय रूपको देखते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस काल में अनेक प्रकार से विभक्त हुए अर्थातृ पृथक्-पृथक् हुए सम्पूर्ण जगत्को, उस देवों के देव श्रीकृष्ण भगवान् के शरीर में एक जगह स्थित देखा उसके अनन्तर वह आश्रर्यसे युक्त हुआ हर्षित रोमों वाला अर्जुन विश्व रूप परमात्मा को श्रद्धा भक्तिसहित सिरसे प्रणाम करके हाथ जोड़े हुए बोला।।
हे देव! आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को और कमल के आसनपर बैठे हुए बह्माको तथा महादेव को और सम्पूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पाें को देखता हूँ। हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामिन्! आपको अनेक हाथ पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ विश्वरूप! आपके न अन्त को देखता हूँ तथा न मध्यको और न आदिको ही देखता हूँ। हे विष्णों ! आपको मैं मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेजका पुज्ज, प्रज्वलित अग्रि और सुर्य के सदृश ज्योतियुक्त देखने में अति गहन और अप्रमेयस्वरूप सब ओर से देखता हूँ।। इसलिये हे भगवन्! आप ही जाननेयोग्य परम अक्षर हैं अर्थात् परब्रह्म परमात्मा हैं और आप ही इस जगत् के परम आश्रम हैं तथा आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं ऐसा मेरा मत है। हे परमेश्वर ! मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित तथा अनन्त सामर्थ्य से युक्त और अनन्त हाथोंवाला तथा चन्द्र-सूर्यरूप नेत्रोंवाला और प्रज्वलित अग्रिरूप मुखवाला तथा अपने तेजसे इस जगत्को तपायमान करता हुआ देखता हूँ। हे महात्मन्! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सब दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूपको देखकर तीनों लोक अति व्याथाको प्राप्त हो रहे हैं। हे गोविन्द ! वे सब देवताओ के समूह आपमें ही प्रवेश करते हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम और गुणों का उच्चारण करते हैं तथा महर्षि और सिद्धांे के समूदाय ‘कल्याण’ होवे ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं। हे परमेश्रवर ! जो एकादश रुद्र और द्वारश आदित्य तथा आठवसु और साध्यगण, विश्रेदेव तथा अश्रिनीकुमार और मरूद्गण और पितरोंका समुदाय तथा गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धगणों के समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित हुए आपको देखते हैं। हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेत्रोंवाले तथा बहुत हाथ, जंघा और पैरोंवाले और बहुत उदरों वाले तथा बहुत-सी विकराल दाढ़ोंवाले महान् रूपको देखकर सब लोक व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ क्योकि हे विष्णों! आकाश के साथ स्पर्श किये हुए देदीप्यमान अनेक रूपो से युक्त फैलाये हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अन्तःकरण वाला मैं धीरज और शान्तिको नहीं प्राप्त होता हूँ। हे भगवान् ! आपके विकराल दाढ़ोंवाले और प्रलय काल की अग्रि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुखको भी नहीं प्राप्त होता हूँ, इसलिये हे देवेश्! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होवें मैं देखता हूँ कि वे सब ही धृत्राष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आपसे प्रवेश करते हैं और भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योधाओं के सहित सब-के-सब। वेगयुुक्त हुए आपके विकराल दाढ़ोंवाले भयानक मुखोंमें प्रवेश करते हैं और कई एक चुर्ण हुए सिरोंसहित आपके दाँतों के बीच में लगे हुए दीखते हैं। हे विश्रमूर्ते ! जैसे नदिया के बहुत-से जलके प्रवाह समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे शुरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश करते हैं अथवा जैसे पतंग मोहके वश होकर नष्ट होने के लिये प्रज्वलित अग्रिमें अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही यह सब लोग भी अपने नाश के लिये आपके मुखों में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं और आप उन सम्पूर्ण लोकों केा प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रसन करते हुए सब ओर से चाट रहे हैं हे विष्णों! आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत् को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपायमान करता है। हे भगवान्! कृपा करके मेरे प्रति कहिये कि आप उग्ररूपवाले कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार होवे, आप प्रसन्न होइये , आदिस्वरूप आपको मैं तत्व से जानना चाहता हूँ, क्योंकि आपकी प्रवृति को मैं नहीं जानता।।
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले, हे अर्जुन! मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ, इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिये प्रविर्ती हुआ हूँ इसलिय जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित हुए योधालोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करनेसे भी इन सबका नाश हो जायगा। इससे तू खड़ा हो और यशको प्राप्त कर तथा शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्यको भोग और यह सब शूरवीर पहिले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं, हे सव्यसाचिन् ! तू तो केवल निमित्त मात्र ही जो जा । तथा इन द्रोणाचार्य और भीष्मपितामह तथा यजद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत-से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योधाओं को तू मार और भय मत कर, निःसंन्देह तू युद्ध मे वैरियों को जीतेगा, इसलिये युद्ध कर।।
इसके उपरान्त संजय बोले कि हे राजन् ! केशवभगवान् के इस वचन को सुनकर, मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, काँपता हुआ नमस्कार करके, फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम करके, भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति गद्गद वाणी से बोला।। कि हे अन्तर्यामिन्! यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और प्रभाव के कीर्तनसे जगतृ अति हर्षित होता है और अनुरागको भी प्राप्त होता है तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार करते हैं । हे महात्मन्! ब्रह्माके भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिये वे कैसे नमस्कार नहीं करें। क्योंकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात् सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं। हे प्रभों ! आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस जगत् के परम आश्रय और जानने वाले तथा जाननेयोग्य और परमधाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे यह सब जगत् व्याप्त अर्थात् परिपूर्ण है। हे हरे! आप वायु, यमराज, अग्रि, वरुण, चन्द्रमा तथा प्रजाके स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्माके भी पिता हैं, आपके लिये हजारों बार नमस्कार, नमस्कार होवे, आपके लिये फिर भी बारम्बार नमस्कार, नमस्कार होवे।। हे अनन्त सामर्थ्यवाले! आपके लिये आगेसे और पीछेसे भी नमस्कार होवे, हे सर्वात्मन् आपके लिये सब ओर से ही नमस्कार होवे, क्योंकि अनन्त पराक्रमशाली आप सब संसार को व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं। हे परमेश्रवर ! सखा ऐसे मान कर आपके इस प्रभावको न जानते हुए मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे! इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है और हे अच्चुत! जो आप हँसी के लिये विहार, शयया, आसन और भोजनादिकों में अकेले अथवा उन सखाओं के समाने भी अपमानित किये गये हैं, वह सब अपराध अप्रमेय-स्वरूप अर्थात् अचिन्त्य प्रभाववाले आपसे मैं क्षमा कराता हूँ।। हे विश्रेश्वर ! आप इस चराचर जगत् के पिता और गुरुसे भी बड़े गुरु एवं अतिपूजनीय हैं, हे अतिशय प्रभाववाले तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक कैसे होवे ? इससे हे प्रभोंत्र! मैं शरीर को अच्छी प्रकार चरणों में रखके और प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ । हे देव! पिता जैसे पुत्र के और सखा जैसे सखाके और पति जैसे प्रिय स्त्री के वैसे ही आप भी मेरे अपराधको सहन करे के लिये योग्य हैं । हे विश्वमूर्ते ! मैं पहिले न देखे हुए आश्रर्यमय आपके इस रूपकों देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भयसे अति व्याकुल भी हो रहा है, इसलिये हे देव! आप अपने चतुर्भुजरूपको ही मेरे लिये दिखाइये, हे देवश! हे जगनिवास ! प्रसन्न होइये।। हे विष्णों ! मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किये हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिये हुए देखना चाहता हूँ, इसलिये हे विश्ररूप ! हे सहस्त्रबाहो! आप उस ही चतुर्भुजरूप से युक्त होइये।।
इस प्रकार अर्जुन को प्रार्थना को सुनकर श्रीकृष्ण भगवानृ बोल – हे अर्जुन! अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय , सबका आदि और सीमारहित विराट्रूप तेरे को दिखाया है जो कि तेरे सिवा दूसरे से पहिले नहीं देखा गया हे अर्जुन ! मनुष्यलोक में इस प्रकार विश्रवरूप वाला मैं न वेद और यज्ञों के अघ्ययन से तथा न दानसे और न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे सिवा दूसरे से देखा जानेको शक्य हूँ।। इस ्रपकार के मेरे इस विकराल रूपकों देखकर तेरे को व्याकुलता न होवे और मूढ़भाव भी न होवे और भयरहित, प्रीतियुक्त मनवाला तू उस ही मेरे इस शंख, चक्र, गदा, पùसहित चतुर्भुनरूपको फिर देख उसके उपरान्त संजय बोले, हे राजन् ! वासुदेवभगवान् ने अर्जुन को प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुजरूपको दिखाया और फिर महात्मा कृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत हुए अर्जुन को धीरज दिया।।
उसके उपरान्त अर्जुन बोले, हे जनार्दन ! आपके इस अति शान्त मनुष्यरूपको देखकर अब मैं शान्तचित हुआ अपने स्वाभावको प्राप्त हो गया हूँ। इस प्रकार अर्जुन के वचन को सुनकर श्रीकृष्ण भगवान् बोले, हे अर्जुन ! मेरा यह चतुर्भुजरूप देखने को अतिदुर्लभ है कि जिसको तुमने देखा है; क्योंकि देवता भी सदा इस रूपके दर्शन करने की इच्छा वाले हैं हे अर्जुन! न वेदों से न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे इस प्रकार चतुर्भुजरूप वाला मैं देखा जाने को शक्य हूँ कि जैसे मेरे को तुमने देखा हैं परंतु हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिये और तŸवसे जानने के लिये तथा प्रवेश करने के लिये अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिये भी शक्य हूँ।ं हे अर्जुन्! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये, सब कुछ मेरा समझता हुआ यज्ञ, दान और तप आदि सम्पूर्ण कर्तव्यकमों को करने वाला है और मेरे परायण है अर्थात् मेरे को परम आश्रय और परम गति मानकर मेरी प्राप्ति के लिये तत्पर है तथा मेरा भक्त है अर्थात् मेरे नाम, गुण, प्रभाव और रहस्य के श्रवण, कीर्तन, मनन, ध्यान और पठन-पाठनका प्रेमसहित निष्कामभाव से निरन्तर अभ्यास करने वाला है और आस्क्तिरहित है अर्थातृ स्त्री, पुत्र और धनादि सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थो में स्नेह रिहत है और सम्पूर्ण भूत-प्राणियों में वैरभावसे रहित है ऐसा वह अनन्य भक्तिवाला पुरुष मेरे को ही प्राप्त होता है।।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘विश्ररूपदर्शनयोग’’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय।।

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