सोमवार, जुलाई 7, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके अठारहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Eighteen Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता का अठारहवाँ अध्याय “मोक्षसंन्यास योग” कहलाता है। यह अध्याय गीता का सबसे विस्तृत और अंतिम अध्याय है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने संन्यास, कर्मयोग, भक्ति, ज्ञान और मोक्ष का सार रूप में वर्णन किया है। यह अध्याय जीवन के परम लक्ष्य—मोक्ष—की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। श्रीमद्भगवद्गीताके अठारहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Eighteen Chapter Mahatmya

श्रीपार्वतीजी ने कहा – भगवन् ! आपने सत्रहवें अध्यायका माहात्म्य बतलाया । अब अठारहवें अध्याय के माहात्म्यका वर्णन कीजिये।

श्रीमाहादेवजीने कहा – गिरिनन्दिनि ! चिन्मय आनन्द की धारा बहानेवाले अठारहवें अध्याय के पावन माहात्म्य को जो वेदसे भी उत्तम हैए श्रवण करो। यह सम्पूर्ण शास्त्रों का सर्वस्वए कानों में पड़ा हुआ रसायन के समान तथा संसार के यातना.जालको छिन्न.भिन्न करनेवाला है। सिद्ध पुरुषों के लिये यह परम रहस्यकी वस्तु है। इसमें अविद्याका नाश करनेकी पूर्ण क्षमता है। यह भगवान् विष्णुकी चेतना तथा सर्वश्रेष्ठ परमपद है। इतना ही नहींए यह विवेकमयी लताका मूलए काम.क्रोध और मदको नष्ट करनेवालाएए इन्द्र आदि देवताओंके चित्तका विश्राम .मंन्दिर तथा सनक सनन्दन आदि महायोगियो का मनोरजन करनेवाला है। इसके पाठमात्रसे यमदूतों की गर्जना बंद हो जाती है। पार्वती! इससे बढ़कर कोई ऐसा रहस्यमय उपदेश नहीं हैए जो संतप्म मानवों के त्रिविध ताप को हरनेवाला और बड़े.बड़े पातकों का नाश करनेवाला हो। अठारहवें अध्यायका लोकोत्तर माहात्म्य है। इसके सम्बन्ध में जो पवित्र उपाख्यान हैए उसे भक्तिपूर्वक सुनो। उसके श्रवणमात्रसे जीव समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।।

मेरुगिरिके शिखरपर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी है। उसे पूर्वकालमें विश्रवकर्माने बनाया था। उस पुरीमें देवताओंद्वारा सेवित इन्द्र शचीके साथ निवास करते थे।एक दिन वे सुखपूर्वक बैठे हुए थेेए इतने ही में उन्होंने देखा कि भगवान् विष्णु के दूतोंसे सेवित एक अन्य पुरुष वहाँ आरहा है। इन्द्र उस नवागत पुरुष के तेजसे तिरस्कृत होकर तुरंत ही अपने मणिमय सिंहासनसे मण्डप में गिर पड़े तब इन्द्र के सेवकों ने देवलोंक के साम्राज्यका मुकुट इस नूतन इन्द्र के मस्तकपर रख दिया। फिर तो दिव्य गीत गाती हुई देवाडनाओं के साथ देवता उनकी आरती उतारने लगे। ऋषियों ने देदमन्त्रों का उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद दियें। गन्धर्वोेंका ललित स्वर में मग्लमंय गान होने लगा।

इस प्रकार इस नवीन इन्द्रको सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किये बिना ही नाना प्रकार के उत्सवों से सेवित देखकर पुराने इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे इसने तो मार्गमें न कभी पौंसले बनवाये हैए न पोखरे खुदवाये है। और न पथिकों को विश्राम देनेवाले बड़े.बड़े वृक्ष ही लगावाये हैं अकाल पड़ने पर अन्नदान के द्वारा इसने प्राणियांे का सत्कार भी नहीं किया है। इसके द्वारा तीर्थों में सत्र और गाँवों में यज्ञ का अनुष्ठान भी नहीं हुआ है। फिर इसने यहाँ भाग्यकी दी हुई ये सारी वस्तुएँ कैसे प्राप्त की है। इस चिन्ता से व्याकुल होकर इन्द्र भगवानृ विष्णु के पूछने के लिये प्रेमपूर्वक क्षीरसागर के तटपर गये और वहाँ अकस्मातृ अपने साम्राज्य से भ्रष्ट होने का दुःख निवेदन करते हुए बोलें . ष्लक्ष्मीकान्त! मैंने पूर्वकाल में आपकी प्रसन्ता के लिये सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उसी के पुण्य से मुझे इन्द्रपदकी प्राप्ति हुई थीय किंतु इस समय स्वर्गमें कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है। उसने तो न कभी धर्मका अनुष्ठान किया है और न यज्ञों का । फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासन पर कैसे अधिकार जमाया है||

श्रीभगवान् बोले . इन्द्र! वह गीताके अठारहवें अध्याय में से पाँच श्लोकों का प्रतिदिन पाठ करता है। उसीके पुण्य से उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्य को प्राप्त कर लिया है। गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ सब पुण्यो का शिरोमणि है। उसीका आश्रय लेकर तुम भी अपने पदपर स्थिर हो सकते हों।
भगवानृ विष्णु के ये वचन सुनकर और उस उत्तम उपायको जानकर इन्द्र ब्राह्मण का वेष बनाये गोदावरी के तटपर गये। वहाँ उन्होने कालिकाग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखाए जहाँ कालका भी मर्दन करने वाले भगवान् कालेश्वर विराजमान हैं। वहीं गोदावरी.तटपर एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थेए जो बडे ही दयालु और वेदों के पारगत विद्वान थे। वे अपने मनको वशमें करके प्रतिदिन गीता के अठारहवें अध्यायका स्वाध्याय किया करते थे। उन्हें देखकर इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ दोनों उनके दोनों चरणों में मस्तक झुकाया और उन्हीं से अठारहवें अघ्यायको पढ़ा। फिर उसीके पुण्य से उन्होंने श्रीविष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लिया। इन्द्र आदि देवताओं का पद बहुत ही छोटा हैए यह जानकर वे परम हर्षके साथ उत्तम वैकुझठधामको गये। अतः यह अध्याय मुनियों के लिये श्रेष्ठ पमर तत्व है। पार्वतीं! अठारहवें अध्याय के इस दिव्य माहात्म्यका वर्णन समाप्त हुआ। इसके श्रवण मात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। इस पुरुष श्रद्धयुक्त होकर इसका श्रवण करता हैए वह समस्त यज्ञों का फल पाकर अन्त में श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

अठारहवाँ अध्याय


उसके उपरान्त अर्जुन बोलेए हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्यागके तत्व को पृथ्क्.पृथक् जानना चाहता हूँ। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकष्णभगवान् बोलेए हे अर्जुन! कितने ही पण्डितजन तो काम्यकर्मों के त्याग को संन्यास जानते हैं और कितने ही विचारकुशल पुरुष सब कर्मो के फलके त्यागको त्याग कहते हैं। तथा कई एक विद्वान ऐसे कहते हैं कि कर्म सभी दोषयुक्त हैंए इसलिये त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान ऐसे कहते हैं कि यज्ञए दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।

परन्तु हे अर्जुन! उस त्याग के विषय में तू मेरे निश्चय को सुनए हे पुरुषश्रेष्ठ! वह त्याग सात्तवकए राजस और तामस ऐसे तीनों प्रकार का ही कहा गया है तथा यज्ञए दान तपरूप कर्म त्यागने के योग्य नहीं हैए किन्तु वह निःसन्देह करना कर्तव्य हैय क्योंकि यज्ञए दान और तप यह तीनों ही बुद्धिमान् पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं इसलिये हे पार्थ् यह यज्ञए दान और तपरूप कर्म तथा और भी सम्पूर्ण श्रेष्ठ कर्मए आसक्ति को और फलों को त्यागकरए अवश्य करने चाहियेए ऐसा मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है और हे अर्जुन! नियत कर्मका त्याग करना योग्य नहीं हैए इसलिये मोहसे उसका त्याग करना तामस त्याग कहा गया है। यदि कोई मनुष्य जो कुछ कर्म हैए वह सब ही दुःखरूप है ऐसे समझकरए शरीरिक कलेश भयसे कर्मों का त्याग कर देए तो वह पुरुष उस राजस त्यागको करके भी त्याग के फलको प्राप्त नहीं होता हैए अर्थात् उसका वह त्याग करना व्यर्थ ही होता है हे अर्जुन! करना कर्तव्य है ऐसे समझकर ही जो शास्त्रविधि से नियत किया हुआ कर्तव्यकर्म आसक्ति को और फलको त्यागकर किया जाता हैए वह ही सात्तवक त्याग माना गया है अर्थातृ कर्तव्यकर्मों को स्वरूप से न त्याग कर उनमें जो आसक्ति और फलका त्यागना हैए वही सात्तवक त्याग माना गया है। हे अर्जुन! जो पुरुष अकल्याणकारक कर्म से तो द्वेष नहीं करता है और कल्याणकारक कर्म में आसक्त नहीं होता हैए वह शुद्ध सत्तवगुण से युक्त हुआ पुरुष संशयरहितए ज्ञानवान् और त्यागी है। क्योंकि देहधारी पुरुष द्वारा सम्पूर्णतासे सब कर्म त्यागे जाने को शक्य नहीं हैं इससे जो पुरुष कर्मों के फलका त्यागी हैए वही त्यागी है ऐसे कहा जाता है। सकामी पुरुषों के कर्मका ही अच्छाए बुरा और मिला हुआ ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पर्श्ताप भी होता है और त्यागी पुरुषों के कर्मों का फल किसी कालमें भी नहीं होता हय क्योंकि उनके द्वारा होने वाले कर्म वास्तव में कर्म नहीं हैं।

हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के सिद्ध होने में यह पाँच हेतु सांख्यसिद्धान्त में कहे गये हैंए उनको तू मेरे से भली प्रकार जान । हे अर्जुन! इस विषय में आधार और कर्ता तथा न्यारे.न्यारे करण और नाना प्रकारकी न्यारी.न्यारी चेष्टा एवं वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव कहा गया है। क्योंकि मनुष्य मनए वाणी और शरीर से शास्त्रके अनुसार अथवा विपरीत भी जो कुछ कर्म आरम्भ करता हैए उसके यह पाँचों ही कारण हैं। परंतु ऐसा होने पर भी जो पुरुष अशुद्धबुद्धि होने के कारण उस विषय मेें केवल शुद्धस्वरूप आत्मा को कर्ता देखता हैए वह मलिन बुद्धिवाला अज्ञानी यथार्थ नहीं देखता है। हे अर्जुन! जिस पुरुष के अन्तःकरण में मैं कर्ता हूँए ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और सम्पूर्ण कर्मों में लियायमान नहीं होतीए वह पुरुष इन सब लोकोको मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है हे भारत! ज्ञाताए ज्ञानए और ज्ञेय यह तीनों तो कर्मके प्रेरक हैं अर्थात् इन तीनो के संयोग से तो कर्म में प्रवृत्त होने की इच्छा होती है और कर्ता करण और क्रिया यह तीनों कर्म के संग्रह हैं अर्थात् इन तीनो संयोग से कर्म बनता है।
उन सबमें ज्ञान और कर्म तथा कर्ता भी गुणो के भेद से सांख्य शास्त्रमें तीन.तीन प्रकार से कहे गये हैंए उनको भी तू मेरे से भली प्रकार सुन । हे अर्जुन! जिस ज्ञान से मनुष्य पृथ्क.पृथ्क् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्माभावको विभागरहित समभाव से स्थित देखता हैए उस ज्ञान को तो तू सात्तवक जानं और जो ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न.भिन्न प्रकार के अनेक भावों की न्यारा.न्यारा करके जानता हैए उस ज्ञान को तू राजस जान। और जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्णता के सदृश आसक्त जिस विपरीत ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक क्षणभगुर नाशवान् शरीर का ही आत्मा मान कर उसमें सर्वस्वकी भाँति आसक्त रहता है तथा जो बिना युक्तिवालाए तŸच.अर्थसे रहित और तुच्छ हैए वह ज्ञान तामस कहा गया है। हे अर्जुन! जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापनके अभिमान से रहितए फलको न चाहने वाला पुरुष द्वारा बिना रागद्वेष से किया हुआ हैए वह कर्म सात्तवक कहा जाता है। और जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त हे तथा फलको चाहने वाले और अहंकार युक्त पुरुषद्वारा किया जाता हैए वह कर्म राजस कहा गया है। तथा जो कर्म परिणामए हानिए हिंसा और सामर्थ्यकेा न विचारकर केवल अज्ञानसे आरम्भ किया जाता हैए वह कर्म तामस कहा जाता हैं।।

हे अर्जुन! जो कर्ता आसक्तिसे रहित और अहंकार के वचन न बालेनेवालाए धैर्य और उत्साहसे युक्तए कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष.शोकादि विकारों से रहित हैए वह कर्ता तो सात्तवक कहा जाता है। जो आसक्ति से युक्तकर्मों के फलको चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववालाए अशुद्धाचारी और हर्ष शोकसे लिपायमान हैए वह कर्ता राजस कहा गया है। जो विक्षेपयुक्त चित्तवालाए शिक्षासे रहितए घमंडीए धूर्त और दूसरे की आजीविकाका नाशक एवं शोक करने के स्वभाववाला आलसी और दीर्घसूत्री हैए वह कर्ता तामस कहा जात है। हे अर्जुन ! तू बुद्धिका और धारणशक्तिका भी गुणों के कारण तीन प्रकार का भेद सम्पूर्णता से विभागपूर्वक मेरे से कहा हुआ सुन।। हे पार्थ! प्रवृतिमार्ग और निवृत्तमार्ग को तथा कर्तव्य और अकर्तव्यको एवं भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको जो जिस बुद्धि तŸवसे जानती हैए वह बुद्धि तो सात्तवकी है। हे पार्थ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्मको तथा कर्तव्य और अकर्तव्यको भी यथार्थ नहीं जानता हैए वह बुद्धि राजसी हरै और हे अर्जुन! जो तमागुणसे आवृत हुई बुद्धि अधर्मकेा धर्म ऐसा मानती है तथा और भी सम्पूर्ण विपरीत ही मानती हैए वह बुद्धि तामसी है।।

हे पार्थ! ध्यानयोग के द्वारा जिस अव्यभिचारिणी धारणासे मनुष्य मनए प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं की धारण करता है वह धारण तो सात्तवकी है। और हे पृथापुत्र अर्जुन! फलकी इच्छावाला मनुष्य अति आसक्ति से जिस धारणा के धर्मए अर्थ और कामों को धारण करता हए वह धारण राजसी है। तथा हे पार्थ! दुःखको एवं उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता है अर्थातृ धारण किये रहता हैए वह धारण तामसी है। हे अर्जुन! अब सुख भी तू तीन प्रकारका मेरे से सुनए हे भरतश्रेष्ठ जिस सुखमें साधक पुरुष भजनए ध्यान और सेवादिके अभ्यास से रमण करता है और दुःखों के अन्तको प्राप्त होता है। वह सुख प्रथम साधन के आरम्भकाल में यद्यपि विषके सदृश भसता है परन्तु परिणाम से अमृत के तुल्य है इसलिये जो भगवत्.विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न हुआ सुख हैए वह सात्तवक कहा गया है। जो सुख विषय और इन्द्रियो के संयोग से होता हैए वह यद्यपि भोगकाल में अमृत के सदृश भासता हैए परन्तु परिणाम में विष के सदृश हैए इसलिये वह सुख राजस कहा गया हैं तथा जो सुख भागकाल में परिणाम में भी आत्माको मोहनेवाला हैए वह निद्राए आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न हुआ सुख तामस कहा गया है। और हे अर्जुन! पृथ्वी में या स्वर्ग में अथवा देवताओं में ऐसा वह कोई भी प्राणी नहीं हैं कि जो इन प्रकृतिसे उत्पन्न हुए तीनों गुणों से रहित होए क्यों कि यावन्मात्र सर्व जगतृ त्रिगुणमयी मायाका ही विकार है।।

इसलिये हे परंतप! ब्राह्मणए क्षत्रिय और वैश्यांें के तथा शूद्रों के भी कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों करके विभक्त किये गये हैं अर्थात् पूर्वकृत कर्मों के संस्काररूप स्वभावसे उत्पन्न हुए गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं उनमें अन्तःकरण का निग्रह इन्द्रियों का दमनए बाहर.भीतर की शुद्धि धर्म के कष्ट हसन करना और क्षमाभाव एवं मनए इन्द्रियाँ और शरीरकी सरलताए आस्तिक बुद्धि शास्त्रविषयक ज्ञान और परमात्मत्तव का अनुभव भीए ये तो ब्राह्मण के स्वाभविक कर्म हैं। शूरवीरताए तेजए र्धर्यए चतुरता और युद्ध में भी न भागने वाला स्वभाव एवं दान और स्वामिभाव अर्थातृ निःस्वार्थभाव से सबका हित सोचकर शास्त्राज्ञानुसार शासनद्वारा प्रेम के सहित पुत्रतुल्य प्रजा को पालन करने का भाव . ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। खेतीए गोपालन और क्रय.विक्रयरूप सत्य व्यवहारए ये वैश्व के स्वाभाविक कर्म हैं और सब वणों की सेवा करना यह शूद्रका भी स्वाभाविक कर्म है। एवं इस अपने.अपने स्वाभविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवतृ प्राप्तिरूप परमसिद्धि को प्राप्त होता हैए परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त होता हैए उस विविधको तू मेरे से सुन।। हे अर्जुन! जिस परमात्मा से सर्वभूतों की उत्पति हुई है और जिससे यह सर्वजगत् व्याप्त है उस परमेश्रवर को अपने स्वाभविक कर्मद्वारा पूजकर मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त होता है इसलिये अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ हैय क्योंकि स्वभावको नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको नहीं प्राप्त होता।। अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोष युक्तभी स्वाभाविक कर्मको नहीं त्यागना चाहिएय क्योंकि धुएँसे अग्रिके सदृश सब ही कर्म किसी.न.किसी दोष से आवृत हैं।

हे अर्जुन! सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवालाए स्पृहारहित और जीते हुए अन्तःकरणवाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है अर्थातृ क्रियारहित शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमात्माकी प्राप्तिरूप परमसिद्धि को प्राप्त होता है इसलिये हे कुन्तीपुत्र! अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष जैसे सांख्ययोग के द्वारा सच्चिदानन्छघन ब्रह्मको प्राप्त होता है तथा जो तत्व ज्ञान की परानिष्ठा हैए उसको भी तू मेरे से संक्षेप से जान।

हे अर्जुन! विशुद्ध बुद्धि से युक्त एकान्त और शुद्ध देशका सेवन करने वाला तथा मिताहारीए जीते हुए मनए वाणीए शरीरवाला और दृढ़ वैराग्यको भली प्राप्त हुआ पुरुष निरन्तर ध्यानयोग के परायण हुआए सात्विक धारणा से अन्तःकरण को वश में करके तथा शब्दादिक विषयांे को त्यागकर और राज.द्वेषोंको नष्ट करके ।ं तथा अहंकारए बलए घमंडए कामए क्रोध और संग्रहको त्यागकर ममतारहित और शान्त.अन्तःकरण हुआए सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिये योग्य होता है। फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें एकीभावसे स्थित हुआ प्रसन्न चित्तवाला पुरुष न तो किसी वस्तु के लिये शोक करता है और न किसी की आकाक्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ मेरी पराभक्तिको प्राप्त होता है। उस पराभक्ति के द्वारा मेरे को तत्व से भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाववाला हूँ तथा उस भक्ति से मेरे को तत्व से जान कर तत्काल ही मेरे में प्रवेश हो जाता है अर्थात् अनन्यभावसे मेरे को प्राप्त हो जाता हैए फिर उसकी दृष्टि में मुझ वासुदेव के सिवा और कुछ भी नहीं रहता ।।
मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परम पदको प्राप्त हो जाता है इसलिये हे अर्जुन! तू सब कर्मों को मनसे मेरे में अर्पण करकेए मेरे परायण हुआ समतवबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोंगका अवलम्बन करके निरन्तर मेरे में चित्तवाला हो। इस प्रकार तू मेरे में निरन्तर मनवाला हुआ मेरी कृपा से जन्म.मृत्यु आदि सब संकटों को अनायास ही तर जायगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनो को नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् परमार्थसे भ्रष्ट हो जायगा जो तू अहंकारको अवलम्बन करके ऐसा मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो यह तेरा निश्चय मिथ्या हैय क्योंकि क्षत्रियपनका स्वभाव तेरे को जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा।।

हे अर्जुन! जिस कर्मको तू मोहसे नहीं करना चाहता हैए उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभविक कर्मसे बँधा हुआ परवश होकर करेगा। क्योंकि हे अर्जुन! शरीररूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्रवर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमाता हुआ सब भूतप्राणियों के हृदय में स्थित है। इसलिये हे भारत ! सब प्रकार से उस परमेस्वरी की ही अनन्यशरण को प्राप्त हो। उस परमात्मा की कृपासे ही परमशान्ति को और परमधामको प्राप्त होगा।
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तेरे लिये कहा हैए इस रहस्ययुक्त ज्ञानको सम्पूर्णता से अच्छी प्रकार विचार के फिर तू जैसे चाहता है वैसे ही कर अर्थातृ जैसी तेरी इच्छा हो वैसे ही कर। इतना कहने पर भी अर्जुन का कोई उत्तर नहीं मिलने के कारण श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले कि हे अर्जुन! सम्पूर्ण गोपनीयों से भी अति गोपनीय मेरे परम सहस्ययुक्त वचनको तू फिर भी सुनय क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय हैए इससे यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिये कहूँगा हे अर्जुन! तू केवल मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से नित्य.निरन्तर अचल मनवाला हो और मुझ परमेश्रवर को ही अतिशय श्रद्धा.भक्तिसहितए निष्कामभावसे नामए गुण और प्रभावके श्रवणए कीर्तनए मनन और पठन.पाठनद्वारा निरन्तर भजनेवाला हो तथा मेरा ;शंखए चक्रए गदाए और किरीटए कुण्डल आदि भूषणो से युक्तए पीताम्बरए वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुकाद्ध मनए वाणी और शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धाए भक्ति और प्रेम से विहृलता पूर्वक पूजन करनेवाला हेा और मुझ सर्वशक्तिमान्ए विभूतिए बलए ऐश्वर्यए माधुर्य गम्भीरताए उदारताए वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणांे से सम्पन्न सबके आश्रयरूप वासुदेवको विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टाग दण्डवत् प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मेरे को ही प्राप्त होगाए यह मैं तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करता हूँय क्यांेंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय सखा है। इसलिये सर्वधर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के आश्रयको त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्यशरण को प्राप्त होय मैं तेरे को सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगाए तू शोक मत कर।।
हे अर्जुन! इस प्रकार तेरे हित के लिये कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्यको किसी कालमें भी न तो तपरहित मनुष्यके प्रति कहना चाहिये और न भक्ति रहित के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छावाले के ही प्रति कहना चाहिये एवं जो मेरी निन्दा करता हैए उसके प्रति भी नहीं कहना चाहियेए परंतु जिनमें यह सब दोष नहीं होए ऐसे भक्तों के प्रति प्रेमपूर्वकए उत्साह के सहित कहना चाहिये। क्योंकि जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्रको मेरे भक्तों में कहेगा अर्थात् निश्कामभावसे प्रेम पूर्वक मेरे भक्तों को पढ़ावेगा या अर्थकी व्याख्या द्वारा इसका प्रचार करेगाए वह निःसन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा। न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त प्यारा पृथ्वी में दूसरा कोई होवेगा। तथा हे अर्जुन! जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवादरूप गीताशास्त्रको पढ़ेगा अर्थात् नित्य पाठ करेगाए उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगाए ऐसा मेरा मत है। जो पुरुष श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित हुआ इस गीताशास्त्रका श्रवणमात्र भी करेगाख् वह भी पापों से मुक्त हुआ उत्तम कर्म करनेवालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होवेगा।

इस प्रकार गीता का माहात्म्य कहकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दने अर्जुन से पूछाए हे पार्थ! क्या यह मेरा वचन तैंने एकाग्रचित्त से श्रवण कियाघ् और हे सञ्जय! क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ घ् इस प्रकार भगवान् के पूछने पर अर्जुन बोलेए हे अच्चुत! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई हैए इसलिये मैं संशयरहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा पालन करूँगा।।

इसके उपरान्त सजय बोले ए हे राजन्! इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्धुत रहस्ययुक्त और रोमस कारक संवादों को सुना। कैसे कि श्रीव्यसजी की कृपासे दिव्यदृष्टि द्वारा मैंने इस परम रहस्ययुक्त गोपनीय योगको साक्षात् कहते हुए स्वयं योगेश्रवर श्रीकृष्णभगवान् से सुना है इसलिये हे राजन् ! श्रीकृष्णभगवान् और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त कल्याणकारक और अöुत संवादको पुनः.पुनः स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूँ।। तथा हे राजन! श्रीहरिके उस अति अद्धुत रूपको भी पुनः.पुनः स्मरण करके मेरे चित्तमें महान् आश्रर्य होता है और मैं बांरबार हर्षित होता हूँ हे राजन! विशेष क्या कहूँए जहाँ योगेश्रवर श्रीकृष्ण भगवान् हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैंए वहींपर श्रीए विजयए विभूति और अचल नीति हैए ऐसा मेरा मत है। ।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषदृ एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ष्ष्मोक्षसंन्यासयोगष्ष् नामक अठारहवाँ अध्याय।।

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