इस अध्याय में असुरराज शुम्भ और देवी दुर्गा के बीच अंतिम महासंग्राम का वर्णन किया गया है। देवी दुर्गा अपने सभी रूपों को एकाकार कर शुम्भ से कहती हैं कि वह अकेली ही समस्त शक्तियों का स्रोत हैं। भयंकर युद्ध के बाद, देवी शुम्भ का संहार कर देवताओं को विजय दिलाती हैं।
मैं मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करनेवाली शिवशक्तिस्वरूपा भगवती कामेश्वरीका हृदयमें चिन्तन करता हूँ। वे तपाये हुए सुवर्णके समान सुन्दर हैं। सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि – ये ही तीन उनके नेत्र हैं तथा वे अपने मनोहर हाथेंमें धनुष-बाण, अंकुश, पाश और शूल धारण किये हुए हैं।
ऋषि कहते हैं- राजन्! अपने प्राणोंके समान प्यारे भाई निशुम्भको मारा गया देख तथा सारी सेनाका संहार होता जान शुम्भने कुपित होकर कहा- ‘दुष्ट दुर्गे! तु बलके अभिमानमें आकर झूठ-मूठका घमंड न दिखा। तू बड़ी मानिनी बनी हुई है, किंतु दूसरी स्त्रियोंके बलका सहारा लेकर लड़ती है’।।
देवी बोलीं- ओ दुष्ट! मैं अकेली ही हूँ। इस संसारमें मेरे सिवा दूसरी कौन है? देख, ये मेरी ही विभूतियाँ हैं, अतः मुझेमें ही प्रवेश कर रही हैं।
तदनन्तर ब्रह्माणी आदि समस्त देवियाँ अम्बिकादेवी शरीरमें लीन हो गयीं। उस समय केवल अम्बिकादेवी ही रह गयीं।।
देवी बोलीं- मैं अपनी ऐश्वर्यशक्तिसे अनेक रूपोंमें यहाँ उपस्थित हुई थी। उन सब रूपोंको मैंने समेट लिया। अब अकेली ही युद्धमें खड़ी हूँ। तुम भी स्थिर हो जाओ।।
ऋषि कहते हैं- तदनन्तर देवी और शुम्भ दोनोंमें सब देवताओं तथा दानवोंके देखते-देखते भयंकर युद्ध छिड़ गया।। बाणोंकी वर्षा तथा तीखे शस्त्रों एवं दारुण अस्त्रोंके प्रहारके कारण उन दोनोंका युद्ध सब लोगोंके लिये बड़ा भयानक प्रतीत हुआ।।
डस समय अम्बिकादेवीने जो सैकड़ों दिव्य अस्त्र छोडे़, उन्हें दैत्यराज शुम्भने उनके निवारक अस्त्रोंद्वारा काट डाला।। इसी प्रकार शुम्भने भी जो दिव्य अस्त्र चलाये; उन्हें परमेश्वरीने भयंकर हुंकार शब्दके उच्चारण आदिद्वारा खिलवाड़में ही नष्ट कर डाला।ं जब उस असुरने सैकड़ों बाणोंसे देवीको आच्छादित कर दिया।ं यह देख क्रोधमें भरी हुई उन देवीने भी बाण मारकर उसका धनुष काट डाला। धनुष कट जानेपर फिर दैत्यराजने शक्ति हाथमंे ली, किंतु देवीने चक्रसे उसके हाथकी शक्तिको भी काट गिराया।। तत्पश्चात् दैत्योंके स्वामी शुम्भने सौ चाँदवाली चमकती हुई ढाल और तलवार हाथमें ले उस समय देवीपर धावा किया।। उसके आते ही चण्डिकाने अपने धनुषसे छोडे हुए तीखे बाणोंद्वारा उसकी सूर्य-किरणोंके समान उज्ज्वल ढाल और तलवारको तुरंत काट दिया।। फिर उस दैत्यके घोडे़ और सारथि मारे गये, धनुष तो पहले ही कट चुका था, अब उसने अम्बिकाको मारनेके लिये उद्यत हो भयंकर मुद्गर हाथमें लिया।। उसे आते देख देवीने अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उसका मुद्गर भी काट डाला, तिसपर भी वह असुर मुक्का तानकर बड़े वेगसे देवीकी ओर झपटा। उस दैत्यराजने देवीकी छातीमें मुक्का मारा, तब उन देवीने भी उसकी छातीमें एक चाँटा जड़ दिया।। देवीका थप्पड़ खाकर दैत्यराज शुम्भ पृथ्वीपर गिर पड़ा, किंतु पुनः सहसा पूर्ववत् उठकर खडा हो गया।। फिर वह उछला और देवीको ऊपर ले जाकर आकाशमें खड़ा हो गया; तब चण्डिका आकाशमें भी बिना किसी आधारके ही शुम्भके साथ युद्ध करने लगीं।। उस समय दैत्य और चण्डिका आकाशमें एक-दूसरेसे लड़ने लगे। उनका वह युद्ध पहले सिद्ध और मुनियोंको विस्मयमें डालनेवाला हुआ।।
फिर अम्बिकाने शूम्भके साथ बहुत देरतक युद्ध करनेके पश्चात् उसे उठाकर घुमाया और पृथ्वीपर पटक दिया। पटके जानेपर पृथ्वीपर आनेके बाद वह दुष्टात्मा देत्य पुनः चण्डिकाका वध करनेके लिये उनकी ओर बड़े वेगसे दौड़ा तब समस्त दैत्योंके राजा शुम्भको अपनी ओर आते देख देवीने त्रिशूलसे उसकी छाती छेदकर उसे पृथ्वीपर गिरा दिया।। देवीके शूलकी धारसे घायल होनेपर उसके पाण-पखेरू उड़ गये और वह समुद्रों द्वीपों तथा पर्वतोंसहित समूची पृथ्वीको कँपाता हुआ भूमिपर गिर पड़ा।। तदनन्तर उस दुरात्माके मारे जानेपर सम्पूर्ण जगतृ प्रसन्न एवं पूर्ण स्वस्थ हो गया तथा आकाश स्वच्छ दिखयी देने लगा।। पहले जो उत्पातसूचक मेघ और उल्कापात होते थे, वे सब शान्त हो गये तथा उस दैत्यके मारे जानेपर नदियाँ भी ठीक मार्ग बहने लगीं।। उस समय शुम्भकी मृत्युके बाद सम्पूर्ण देवताओंका हृदय हर्षसे भर गया और गन्धर्वगण मधुर गीत गाने लगे।। दूसरे गन्धर्व बाजे बजाने लगे और अप्सराएँ नाचने लगीं। पवित्र वायु बहने लगी।। सूर्यकी प्रभा उत्तम हो गयी।। अग्निशालाकी बुझी हुई आग अपने-आप प्रज्वलित हो उठी तथा सम्पूर्ण दिशाओंके भयंकर शब्द शान्त हो गये।।
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वनतरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ‘शुम्भ-वध’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।।
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