विनियोग – प्रथम चरित्र के ब्रह्या ऋषि, महाकाली देवता, गायत्री छन्द, नन्दा शक्ति, रक्तदन्तिका बीज, अग्नि तत्व और ऋग्वेद स्वरूप है। श्रीमहाकाली देवता की प्रसन्नता के लिये प्रथम चरित्र के जप में विनियोग किया जाता है।
ध्यान – भगवान् विष्णु के सो जाने पर मधु और कैटभ को मारने के लिये कमल जन्मा ब्रह्माजी ने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवी का मैं सेवन करता हूँ। वे अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे समस्त अंगों में दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं। उनके शरीर की कान्ति नीलमणि के समान है तथा वे दस मुख और दस पैरों से युक्त हैं।
मार्कण्डेय जी बोले – सूये के पुत्र सावर्णि जो आठवें मनु कहे जाते हैं, उनकी उत्पत्ति कि कथा विस्तार पूर्वक कहता हूँ, सुनो ।
सूर्यकुमार महाभग सावर्णि भगवती महामया के अनुग्रह से जिस प्रकार मन्वन्तर के स्वामी हुए, वही प्रसंग सुनाता हूँ ।
पूर्व काल की बात है, सवारो चिष मन्वन्तर में सुरथ नामके एक राजा थे, जो चैत्र वंश में उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार था । वे प्रजा का अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्म पूर्वक पालन करते थे, तो भी उस समय कोलाविध्वंसी नाम के क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये।
राजा सुरथ की दण्डनीति बड़ा प्रबल थी। उनका शत्रुओं के साथ संग्राम हुआ यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्या में कम थे, तो भी राजा सूरथ युद्ध में उनसे परास्त हो गये । तब वे युद्धभूमि से अपने नगर को लौट आये और केवल अपने देश के राजा होकर रहने लगे (समूची पृथ्वी से अब उनका अधिकार जाता रहा), किंतू वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओं ने उस समय महाभाग राजा सुरथ पर आक्रमण कर दिया ।
राजा का बल क्षीण हो चला था, इसलिये उनके दुष्ट बलवान् एवं दुरात्मा मन्त्रियों ने वहाँ उनकी राजधानी में भी राजकीय सेना और खजाने को हथिया लिया ।
सुरथ का प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार हो वहाँ से अकेले ही एक घने जंगल में चले गये । वहाँ उन्होने विप्रवर मेधा मुनिका आश्रम देखा, जहाँ कितने ही हिंसक जीव ( अपनी स्वाभाविक हिंसावृति छोड़कर) परम शान्त भाव से रहते थे। मुनि के बहुत-से शिष्य उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे ।।
वहाँ जाने पर मुनि ने उनका सत्कार किया और वे उन मुनिश्रेष्ठ के आश्रम पर इधर-उधर विचरते हुए कुछ काल तक रहे ।
फिर ममता से आकृष्टचित होकर वहाँ इस प्रकार चिन्ता करने लगे- ‘पूर्वकालमें मेरे पूर्वजों ने जिसका पालन किया था, वही नगर आज मुझसे रहित है। पता नहीं, मेरे दुराचारी भृत्यगण उसकी धर्म पूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं। जो सदा मद की वर्षा करने वाला और सुर वीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओं के अधीन होकर न जाने किन भोगों को भोगता होगा?
जो लोग मेरी कृपा, धन और भोजन पाने से सदा मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वे चिश्चय ही अब दूसरे राजाओं का अनुसरण करते होंगे। उन अपव्ययी लोगों के द्वारा सदा खर्च होते रहने के कारण अत्यन्त कष्ट से जमा किया हुआ मेरा वह खजाना खाली हो जायगा। ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरन्तर सोचते रहते थे। एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधा के आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा और पूछा – ‘भाई! तुम कौन हो? तुम्हारे आनेका क्या कारण है? तुम क्यों शोकग्रस्त और अनमने-से दिखायी देते हो?‘ राजा सुरथ का यह प्रेम पूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्य ने विनीत भाव से उन्हें प्रणाम करके कहा –
वैश्य बोला – राजन्! मैं धनियों के कुल में उत्पन्न एक वैश्य हूँ। मेरा नाम समाधि है । मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रों ने धन के लोभ से मुझे घर से बाहर निकाल दिया है। मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्रों से वंचित हूँ। मेरे विश्वसनीय बन्धुओं ने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है, इसलिये दुःखी होकर मैं वन में चला आया हूँ। यहाँ रहकर मैं इस बात को नहीं जानता कि मेरे पुत्रों की, स्त्री की और स्वजनों की कुशल है या नहीं। इस समय घर में वे कुशल से रहते हैं अथवा उन्हें कोई कष्ट है? । वे मेरे पुत्र कैसे हैं? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये हैं?
राजा ने पूछा – जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदि ने धन के कारण तुम्हें घर से निकाल दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित में इतना स्नेह का बन्धन क्यों है।
वैश्या बोला – आप मेरे विषय में जैसी बात कहते हैं, वह सब ठीक है । किंतु क्या करूँ, मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता। जिन्होंने धन के लोभ में पड़कर पिता के प्रति स्नेह, पति के प्रति प्रेम तथा आत्मीय जन के प्रति अनुराग को तिलांजलि दे मुझे घर से निकाल दिया है, उन्ही के प्रति मेरे हृदय में इतना स्नेह है। महामते! गुणहीन बन्धुओं के प्रति भी जो जान कर भी नहीं जान पाता। उनके लिये मैं लंबी साँसें ले रहा हूँ और मेरा ह्नदय अत्यन्त दुःखित हो रहा है । उन लोगों में प्रेम का सर्वथा अभाव है, तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नहीं हो पाता, इसके लिये क्या करूँ?
मार्कण्डेय जी कहते हैं – ब्रह्मन्! तदनन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ यथायोग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण बर्ताब करके बैठे। तत्पश्चात् वैश्य और राजा ने कुछ वार्तालाप आरम्भ किया।।
राजा ने कहा – भगवन्! मैं आपसे एक बात पूछता चाहता हूँ, उसे बताइये । मेरा चित अपने अधीन न होने के कारण वह बात मेरे मन को बहुत दुःख देती है। जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है, उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरी ममता बनी हुई है।। मुनिश्रेष्ठ ! यह जानते हुए भी कि वह मेेरा नहीं है, अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिये दुःख होता है, यह क्या है? इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है। इसके पुत्र, स्त्री और भृत्यों ने इसे छोड़ दिया है।। स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है, तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता है। इस प्रकार यह तथा मैं दोनों ही बहुत दुःखी हैं। जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, तो उस विषय के लिये भी हमारे मन में ममता जनित आकर्षण पैदा हो रहा है। महाभाग ! हम दोनों समझदार है, तो भी हममें जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है ? विवेकशून्य पुरुष की भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है।
ऋषि बोले – महाभाग! विषय मार्ग का ज्ञान सब जीवों को है।। इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग-अलग हैं, कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते और दूसरे रात में ही नहीं देखते तथा कुछ जीव ऐसे है, जो दिन और रात्रि में भी बराबर ही देखते हैं। यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं, किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते ।। पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं। मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है।। तथा जैसी मनुष्यों की होती है, वैसी ही उन मृग-पक्षी आदि की होती है। यह तथा अन्य बातें भी प्रायः दोनों में समान ही हैं। समझ होने पर भी इन पक्षियों की तो देखो, ये स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में कितने चाव से अन्न के दाने डाल रहे है!
नरश्रेष्ठ ! क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभ वश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिये पुत्रों की अभिलाषा करते हैं? यद्यपि उन सब में समझ की कमी नहीं है, तथपि वे संसार की स्थिति (जन्म-मरण की परम्परा) बनाये रखने वाले भगवती महामाया के प्रभाव द्धारा ममता मय भँवर से युक्त मोह के गहरे गर्त में गिराये गये हैं। इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। जगदीश्वर भगवान् विष्णु की योग निद्रा रूपा जो भगवती महामया हैं, उन्ही से यह जगत् मोहित हो रहा है। वे भगवती महामया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं। वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति लिये वरदान देती हैं। वे ही परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्ष की हेतु भूता सनातनी देवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं।
राजा ने पुछा- भगवन्! जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं? ब्रह्यन्! उनका आविर्भाव कैसे हुआ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं ? ब्रह्यवेताओं में श्रेष्ठ महर्षे! उन देवी का जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ हो, वह सब मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ।
ऋषि बोले – राजन् ! वास्तव में तो वे देवी नित्य स्वरूपा ही हैं। सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकटय अनेक प्रकार से होता है। वह मुझसे सुनो। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओंका कार्य सिद्ध करने के लिये प्रकट होती हैं, उस समय लोक में उत्पन्न हुई कहलाती हैं। कल्प के अन्त में जब सम्पूर्ण जगत् एकार्णव में निमग्न हो रहा था और सबके प्रभु भगवान् विष्णू शेषनाग की शया बिछाकर योग निद्रा का आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानों के मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभ के नाम से विख्यात थे। वे दोनों ब्रह्माजी ने वध करने को तैयार हो गये। भगवान् विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्याजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान को सोया हुआ देखा, तब एकाग्रचित होकर उन्होंने भगवान् विष्णु को जगानेे के लिये नेत्रों में निवास करनेवाली योनिद्रा का स्तवन आरम्भ किया। जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेजःस्वरूप भगवान् विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रा देवी की भगवान् ब्रह्या स्तुति करने लगे।
ब्रह्याजी ने कहा – देवि ! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं वषरट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवन दायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणवमें अकार, उकार, मकार- इन – तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा हैं, जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। देवि! तुम्हीं इस विश्व – ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करनेवाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणोंको उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो। भंयकर कालरात्रि, माहरात्रि अपौर मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्नी और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्वि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्ग धारिणी, शूल धारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ- ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर-सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। सर्वस्वरूप् देवि कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है? मुझको, भगवान् शंकर को तथा भगवान् विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किस में है ? देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनो दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोहमें डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनो महान् असुरों को मार डालने की बु़िद्ध उत्पन्न कर दो।
ऋषि कहते हैं- राजन्! ज्ब ब्रह्माजी ने वहाँ मधु और कैटभको मारने के उद्देश्य से भगवान् विष्णु को जगाने के लिये तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान्के नेत्र, मुख नासिका, बाहु, हृदय और वक्षःस्थलसे निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीकी दृष्टिके समक्ष खड़ी हो गयीं। योगनिद्रासे मुक्त होनेपर जगत्के स्वामी भगवान् जनार्दन उस एकार्णवके जलमें शेषनागकी शययासे जाग उठे। फिर उन्होने उन दोनों असुरोंको देखा । वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान् तथा पराक्रमी थे और क्रोधसे लाल आँखें किये ब्रह्माजीको खा जानेके लिये उद्योग कर रहे थे। तब भगवान् श्रीहरि ने उठ कर उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षों तक केवल बाहुयुद्ध किया। वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत हो रहे थे। इधर महामाया ने भी उन्हें मोह में डाल रखा था; इसलिये वे भगवान् विष्णुसे कहने लगे- ’हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं। तुम हम लोगों से कोई वर माँगो’।।
श्रीभगवान् बोले – यदि तुम दोनों मुझपर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ। बस, इनता-सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है।।
ऋषि कहते हैं- इस प्रकार धोखे में आ जाने पर जब उन्होंने सम्पूर्ण जगत में जल-ही-जल देखा, तब कमल नयन भगवान से कहा – ’जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो-जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो’।
ऋषि कहते हैं – तब ’तथास्तु’ कहकर शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान्ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्र से काट डाले। इस प्रकार ये देवी महामया ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं। अब पुनः तुमसे उनके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सुनो।
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तरकी कथा के अन्तर्गत देवी महारत्म्य में ’मधु-कैटभ-वध’ नामक पहला अध्यया पूरा हुआ।
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