इस उŸारचरित्रके रुद्र ऋषि हैं, महासरस्वती देवता हैं, अनुष्टुप् छन्द हैं, भीमा शक्ति है, भ्रामरी बीज है, सुर्य तŸव है और सामवेद स्वरूप है। महासरस्वतीकी प्रसन्नताके लिये उŸारचरित्रके पाठमें इसका विनियोग किया जाता है।
जो अपने करकमलोंमें घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, शरद्ऋतुके शोभासम्पन्न चन्द्रमाके समान जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकोंकी आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्योंका नाश करनेवाली हैं तथा गौरीके शरीके जिनका प्राकटय हुआ है, उन महासरस्वतीदेवीका मैं निरन्तर भजन करता हूँ।
ऋषि कहते हैं- पूर्वकालमें शूम्भ और निशुम्भ नामक असुरोंने अपने बलके घमंडमें आकर शचीपति इन्द्रके हाथसे तीनों लोकोंका राज्य और यज्ञभाग छीन लिये वे ही दोनों सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, यम और वरुणके अधिकारका भी उपयोग करने लगे। वायु और अग्निका कार्य भी वे ही करने लगे। उन दोनोंने सब देवताओंको अपमानित, राज्यभ्रष्ट, पराजित तथा अधिकारहीन करके स्वर्गसे निकाल दियां उन दोनों महान् असुरोंसे तिरस्कृत देवताओने अपराजितादेवीका स्मरण किया और सोचा- ’जगदम्बाने हम-लोगोंको वर दिया था कि आपŸिायोंका तत्काल नाश कर दूँगी। यह विचारकर देवता गिरिराज हिमालयपर गये और वहाँ भगवती विष्णुमायाकी स्तुति करने लगे।
छेवता बोले- देवीको नमस्कार है, महादेवी शिवाको सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्राको प्रणाम है। हमलोग नियमपूर्वक जगदम्बाको नमस्कार करते है। रौद्राको नमस्कार है। नित्या, गौरी एवं धात्रीको बारंबार नमस्कार है। ज्योत्स्नयमी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवीको सतत प्रणाम है। शरणगतोंका कल्याण करनेवाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवीको हम बारंबार नमस्कार करते हैं। नैर्ऋती (राक्षसोंकी लक्ष्मी), राजाओंकी लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्नी)- स्वरूपा आप जगदम्बाको बार-बार नमस्कार है।। दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकटसे पार उतारनेवाली), सारा (सबकी सारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रादेवीको सर्वदा नमस्कार है। अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा देवीको हम नमस्कार करते हैं, उन्हें हमारा बारंबार प्रणाम हैं। जगत्की आधारभूता कृतिदेवीको बारंबार नमस्कार हैं। जो देवी सब प्राणियोंमें विष्णुमायाके नामसे कही जाती हैं, उनको नमस्कार, उनकों नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार हैं।।
जो देवी सब प्राणियोंमें चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्राणियोंमें बुद्धिरूपसे स्थित है, उनको नमस्कार उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्रणियोंमें निद्रारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार हैं।। जो देवी सब प्राणियोंमें क्षुधारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्राणियोंमें छायारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्रणियोंमें शक्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।।। जो देवी सब प्राणियोंमें तृष्णारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार है।।
जो देवी सब प्राणियोंमें क्षान्ति (क्षमा)- रूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्राणियोंमें जातिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्रणियोंमें लज्जारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार हैं। जो देवी सब प्राणियोंमें शान्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्राणियोंमें श्रद्धारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्राणियोंमें कान्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बांरबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्राणियोंमें लक्ष्मीरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बांरबार नमस्कार हैं।।
जो देवी सब प्राणियोंमें वृŸिारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बांरबार नमस्कार हैं। जो देवी सब प्राणियोंमें स्मृतिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्राणियोंमें दयारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्राणियोंमें तुष्टिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार हैं जो देवी सब प्राणियोंमें मातारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। जो देवी सब प्राणियोंमें भ्रान्तिरूपसे स्थित हैं, उकनो नमस्कार, उनको नमस्कार, उनकोे बारंबार नमस्कार है।। जो जीवोंके इन्द्रियवर्गकी अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणियोंमें सदा व्याप्त रहनेवाली हैं, उन वरूाप्तिदेवीको बांरबार नमस्कार हैं।।
जो देवी चैतन्यरूपसे इस सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।। पूर्वकालमें अपने अभीष्टकी प्राप्ति होनेसे देवताओने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्रने बहुत दिनोंतक जिनका सेवन किया, वह कल्याणकी साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मंगल करे तथा सारी आपŸिायोंका नाश कर डाले ।। उद्दण्ड दैत्योंसे सताये हुए हम सभी देवता जिन परमेश्वरीको इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्तिसे विनम्र पुरुषोंद्वारा स्मरण की जानेपर तत्काल ही सम्पूर्ण विपŸिायोंका नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें।।
ऋषि कहते हैं- राजन्! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उस समय पार्वतीदेवी गंगाजीके जलमें स्नान करनेके लिये वहाँ आयीं।।
उन सुन्दर भौंहोंवाली भगवतीने देवताओंसे पूछा – ’आपलोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं?’ तब उन्हींके शरीरकोशसे प्रकट हुई शिवादेवी बोलीं- शुम्भ दैत्यसे तिरस्कृत और युद्धमें निशुम्भसे पराजित हो यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता यह मेरी ही स्तुति कर रहे हैं’ ।। पार्वतीजीके शरीरकोशसे अम्बिकाका प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिये वे समस्त लोकोंमें ’कौशिकी’ कही जाती हैं।। कौशिकी के प्रकट होनेके बाद पार्वतीदेवीका शरीर काले रंगका हो गया, अतः वे हिमालयपर रहनेवाली कालिकादेवीके नामसे विख्यात हुईं।ं तदनन्तर शुम्भ-निशुम्भके भृत्य चण्ड-मुण्ड वहाँ आये और उन्होंने शुम्भके पास जाकर बोले- महाराज! एक अत्यन्त मनोहर स्त्री है, जो अपनी दिव्य कान्तिसे हिमालायको प्रकाशित कर रही है।।
वैसा उŸाम रूप् कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा। असुरेश्वर! प्ता लगाइये, वह देवी कौन है और उस ेले लीजिये ।। स्त्रियोंमें तो वह रत्न है, उसका प्रत्येक अंग बहुत ही सुन्दर है। दैत्यराज1 अभी वह हिमालय पर ही मौजूद है, आप उसे देख सकते हैं। प्रभो! त्ीनों लोकोंमें मणि, हाथी और घोड़े आदि जितने भी रत्न हैं, वे सब इस समय आपके घरमें शोभा पाते हैं।। हाथियोंमें रत्नभूत ऐरावत, यह पारिजातका वृक्ष और यह उच्चैःश्रवा घोड़ा – यह सब आपने इन्द्रसे ले लिया है। हंसोंसे जुता हुआ यह विमान भी आपके आँगनमें शोभा पाता है। यह रत्नभूत अ˜ुत विमान, जो पहले ब्रह्माजीके पास था, अब आपके यहाँ लाया गया है।। यह महापù नामक निधि आप कुबेरसे छीन लाये हैं। समुद्रने भी आपको किंजल्किनी नामकी माला भेंट की है।, जो केसरोंसे सुशोभित है और जिसके कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं।। सुवर्णकी वर्षा करनेवाला वरुणका छत्र भी आपके धरमें शोभा पाता हैं तथा यह श्रेष्ठ रथ, जो पहले प्रजापतिके अधिकारमें था, अब आपके पास मौजूद है। दैत्येश्वर! मृत्युकी उत्क्रान्तिदा नामवाली शक्ति भी आपने छीन ली है तथा वरुणका पाश और समुद्रमें होनेवाले सब प्रकारके रत्न आपके भाई निशुम्भके अधिकारमें हैं। अग्निने भी स्वतः शुद्ध किये हुए दो वस्त्र आपकी सेवामें अर्पित किये हैं। दैत्यराज! ठस प्रकार सभी रत्न आपने एकत्र कर लिये हैं। फिर जो यह स्त्रियोंमें रत्नरूप कल्याणमयी देवी है, इसे आप क्यों नहीं अपने अधिकारमें कर लेते?।।
ऋषि कहते हैं- चण्ड-मुण्डका यह वचन सुनकर शुम्भने महादैत्य सुग्रीवको दूत बनाकर देवीके पास भेजा और कहा – ’तुम मेरी आज्ञासे उसके साने ये-ये बातें कहना ऐसा उपाय करना, जिससे प्रसन्न होकर वह शीघ्र ही यहाँ आ जाय’।। वह दूत पर्वतके अत्यन्त रमणीय प्रदेशमें, यहाँ देवी मौजूद थीं, गया और मधुर वाणीमें कोमल वचन बोला।।
छूत बोला- देवि! दैत्यराज शुम्भ इस समय तीनों लोकोंके परमेश्वर हैं। मैं उन्हींका भेजा हुआ दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ उनकी आज्ञा सदा सब देवता एक स्वरसे मानते हैं। कोई उसका उल्लंघन नही ंकर सकता । वे सम्पूर्ण देवताओंको परास्त कर चुके हैं। उन्होनें तुम्हारे लिये जो संदेश दिया है, उसे सुनो – ’सम्पूर्ण यज्ञोंके भागांको मैं ही पृथक्-पृथक् भोगता हूँ।। तीनों लोकोमें जितने श्रेष्ठ हैं, वे सब मेरे अधिकार में हैं। देवराज इन्द्रका वाहन ऐरावत, जो हाथियोंमें रत्नके समान हैं, मैंने छीन लिया है।। क्षीरसागरका मन्थन करनेसे जो अश्वरत्न उच्चैःश्रवा प्रकट हुआ था, उसे देवताओंने मेरे पैरोंपर पड़कर समर्पित किया है।। सुन्दरी! उनके सिवा और भी जितने रत्नभूत पदार्थ देवताओं, गन्धर्वों और नागोंके पास थे, वे सब मेरे पास आ गये हैं। देवि ! हमलोग तुम्हें संसारकी स्त्रियोंमें रत्न मानते हैं, अतः तुम हमारे पास आ जाओ; क्योंकि रत्नोंका उपभोग करनेवाले हम ही हैं। चंचल कटाक्षोंवाली सुन्दरी1 तुम मेरी या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भकी सेवामें आ जाओं; क्योंकि तुम रत्नस्वरूपा हो ।। मेरा वरण करनेसे तुम्हें तुलनारहित महानृ ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी। अपनी बुद्धिसे यह विचारकर तुम मेरी पत्नी बन जाओं।।
ऋषि कहते हैं- दूतके यों कहनेपर कल्याणमयी भगवती दुर्गाेदेवी, जो इस जगत्को धारण करती हैं, मन-ही-मन गम्भीरभावसे मुसकरायीं और इस प्रकार बोलीं – ।।
देवीने कहा – दूत! त्ुमने सत्य कहा है, इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। शुम्भ तीनों लोकोंका स्वामी है और निशुम्भ भी उसीके समान पराक्रमी है।। किंतु इस विषयमें मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसे मिथ्या कैसे करूँ? मैंने अपनी अल्पबुद्धिके कारण पहलेसे जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे सुनो-।। ’जो मुझे संग्राममें जीत लेगा, जो रेरे अभिमानको चूर्ण कर देगा तथा संसारमें जो मेरे समान बलवान् होगा, वही मेरा स्वामी होगा’ इसलिये शुम्भ अथवा महादैत्य निशुम्भ स्वयं ही यहाँ पधारे और मुझे जीतकर शीघ्र ही मेरा पाणिग्रहण कर लें, इसमें विलम्बकी क्या आवश्यकता है?।।
दूत बोला- देवि! तुम घमंडमें भरी हो, मेरे सामने ऐसी बातें न करो। तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो शुम्भ-निशुम्भके सामने खड़ा हो सके।ं देवि! अन्य दैत्योंके सामने भी सारे देवता युद्धमें नहीं ठहर सकते, फिर तुम अकेली स्त्री होकर कैसे ठहर सकती हो।। जिन शुम्भ आदि दैत्योंके सामने इन्द्र आदि सब देवता भी युद्धमें खडे नहीं हुए, उनके सामने तुम स्त्री होकर कैसे जाओगी।ं इसलिये तुम मेरे ही कहनेसे शुम्भ-निशुम्भके पास चली चलो। ऐसा करनेसे तुम्हारे गौरवकी रक्षा होगी; अन्यथा जब वे केश पकड़कर घसीटेंगे, तब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा।ं
देवीने कहा- तुम्हारा कहना ठीक है, शुम्भ बलवान् हैं और निशुम्भ भी बड़े प्रराक्रमी हैं; किंतु क्या करूँ? मैंने पहले बिना सोचे-समझे प्रतिज्ञा कर ली है।ं अतः अब तुम जाओं; मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब दैत्यराजसे आदरपूर्वक कहना।। फिर वे जो उचित जान पड़े, करें।।
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ‘देवी-दूत-संवाद’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ।।
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