सोमवार, अगस्त 4, 2025
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अथ श्री दुर्गा सप्तशती : चतुर्थ अध्याय | Durga Saptashati : Chaturth Adhyay

ध्यान – सिद्धि की इच्छा रखनेवाले पुरुष जिनकी सेवा करते है तथा देवता जिन्हें सब ओरसे घेरे रहते हैं, उन ’जया’ नाम वाली दुर्गा देवी का ध्यान करे। उनके श्री अंगों की आभा काले मेघ के समान श्याम है। वे अने कटाक्षों से शत्रु समूह को भय प्रदान करती हैं। उनके मस्तक पर आबद्ध चन्द्रमा की रेखा शोभा पाती है। वे अवने हाथेंमें शंख, चक्र, कृपाण और त्रिशूल धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे सिंह के कंधे पर चढ़ी हुई और तेज से तीनों लोकों को परिपूर्ण कर रही हैं।


ऋषि कहते हैं- अन्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसकी दैत्य-सेना के देवी के हाथ से मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता प्रणाम के लिये गर्दन तथा कंधे झुका कर उन भगवती दुर्गा का उतम वचनों द्वारा स्तवन करने लगे। उस समय बपके सुन्दर अंगों में अत्यन्त हर्ष के कारण रोमांच हो आया था। देवता बोले- ’संम्पूर्ण देवताओ की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति-पूर्वक नमस्कार करते है। वे हमलोगों का कल्याण करें। जिनके अनुपम प्रभाव और बलका वर्णन करनेमें भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत्का पालन एवं अशुभ भयका नाश करनेका विचार करें।। जो पुण्यात्माओंके घरोंमें स्वयं ही लक्ष्मीरूपसे, पापियोंके यहाँ दरिद्रतारूपसे, शुद्ध अन्तःकरणवाले पूरुषोंके हृदयमें बुद्धिरूपसे, सत्पूरूषोंसे तथा कुलीन मनुष्यमें लज्जारूपसे निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गाको हम नमस्कार करते हैं। देवि! टाप सम्पूर्ण विष्वका पालन कीजिये।। देवि! टापके इस अचिन्त्य रूपका, असुरोंका नाश करनेवाले भारी पराक्रमका तथा समस्त देवताओं और दैत्योंके समक्ष युद्धमें प्रकट किये हुए आपके अद्धुत चरित्रोंका हम किस प्रकार वर्णन करें। आप सम्पूर्ण जगत्की उत्पतिमें कारण हैं। आपमें सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये तीनों गुण मौजूद हैं; तो भी दोषोंके साथ आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता। भगवान् विष्णु और महादेवजी आदि देवता भी आपका पार नहीं पाते। आप ही सबका आश्रय हैं। यह समस्त जगत् आपका अंशभूत है; क्योंकि आप सबकी आदिभूत अव्याकृता परा प्रकृति हैं।। देवि! सम्पूर्ण यज्ञोंमें जिसके उच्चारणसे सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वह स्वाहा आप ही हैं। इसके अतिरिक्त आप पितरोंकी भी तृप्तिका कारण हैं, अतएव सब लोग आपको स्वधा भी कहते हैं। देवि! जे मोक्षकी प्राप्तिका साधन है, अचिन्त्य महाव्रतस्वरूपा है, समस्त दोषोंसे रहित, जितेन्द्रिय तत्वको ही सार वस्तु माननेवाले तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं, वह भगवती परा विद्या आप ही हैं। आप शब्दस्वरूपा हैं, अत्यन्त निर्मल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा उद्गीथके मनोहर पदोंके पाठसे युक्त सामवेदका भी आधार आप ही हैं। आप देवी, त्रयी एवं पालके लिये आप ही वार्ता (खेती एवं आजीविका)- के रूपमें प्रकट हुई हैं। आप सम्पूर्ण जगत्की सारका ज्ञान पीड़ाका नाश करनेवाली हैं। देवि! जिससे समस्त शास्त्रोंके सारका ज्ञान होता है, वह मेधाशक्ति आप ही हैं। दुर्गम भवसागरसे पार उतारनेवाली नौकारूप् दुर्गादेवी भी आप ही हैं। आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है। कैटभके शत्रु भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें एकमात्र निवास करनेवाली भगवती लक्ष्मी तथा भगवान् चन्द्रशेखरद्वारा सम्मानित गौरीदेवी भी आप ही हैं। आपका मुख मन्द मुसकानसे सुशोंभित, निर्मल, पूर्ण चन्द्रकाके बिम्बका अनुकरण करनेवाला और उतम सुवर्णकी मनोहर कान्तिसे कमनीय है; तो भी उस े देखकर महिषासुरको क्रोध हुआ और सहसा उसने उसपर प्रहार कर दिया, यह बड़े आश्र्चकी बात है।। देवि! वही मुख जब क्रोधसे युक्त होनेपर उदयकालके चन्द्रमाकी भाँति लाल और नती हुई भौंहोंके कारण विकराल हो उठा, तब उसे देखकर जो महिषासुरके प्राण तुरंत नहीं निकल गये, यह उससे भी बढत्रकर आश्चर्यकी बात है; क्योंकि क्रोधमें भरे हुए यमराजको देखकर भला, कौन जीवित रह सकता है? देवि! आप प्रसन्न हों। परमात्मस्वरूपा आपके पसन्न होनेपर जगत्का अभ्युदय होता है और क्रोधमें भर जानेपर आप तत्काल ही कितने कुलोंका सर्वनाश कर डालती हैं, यह बात अभी अनुभवमें आयी है; क्योंकि महिषासुरकी यह विशाल सेना क्षणभरमें आपके कोपसे नष्ट हो गयी हैं।। सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली आप जिनपर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देशमें सम्मानित हैं, उन्हींको धन और यशकी प्राप्ति होती हैं, उन्हींका धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्योंके साथ धन्य माने जाते हैं। देवि! आपकी ही कृपासे पुण्यात्मा, पुरुष प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सदा सब प्रकारके धर्मानुकूल कर्म करता है और उसके प्रभावसे स्वर्गलोकमें जाता है; इसलिये आम तीनों लोकोंमें निश्चय ही मनोवांछित फल देने वाली हैं।। माँ दुर्गें! टाप स्मरण करनेपर सब प्राणियोंका भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषोंद्धारा चिन्तन करनेपर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन हैं, जिसका चित सबका उपकार करनेके लिये सदा ही दयार्द्र रहता है।।
छेवि! इन राक्षसोंके मारनेसे संसारको सुख मिले तथा ये राक्षस चिरकालतक नरकमें रहनेके लिये भले ही पाप करते रहे हों, इस समय संग्राममें मृत्युको प्राप्त होकर स्वर्गजलोकमें जायँ – निश्चय ही यहीसोचकर आप शत्रुओंका वध करती है।। आप शत्रुओंपर शस्त्रोंका प्रहार क्यों करती हैं? समस्त असुरोंको दृष्टिपातमात्रसे ही भस्म क्यों नही ंकर देतीं? इसमें एक रहस्य है। ये शत्रु भी हमारे शस्त्रोंसे पवित्र होकर उतम लोकोंमें जायँ- इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यन्त उतम रहता है।ं खड्गके तेजःपुंजकी भयंकर दीप्तिसे तथा आपके त्रिशूलके अग्रभागकी घनीभूत प्रभाव चैंधियाकर जो असुरोंकी युक्त चन्द्रमाके समान आनन्द प्रदान करनेवाले आपके इस सुन्दर मुखका दर्शन करते थे।ं देवि1 आपका शील दुराचारियोंके बुरे बर्तावको दूर करनेवाला हैं साथ ही यह रूप ऐसा है, जो कभी चिन्तनमें भी नहीं आ सकता और जिसकी कभी दूसरोंसे तुलना भी नहीं हो सकती; तथा आपका बल और पराक्रम तो उन दैत्योंका भी नाश करनेवाला हैं, जो कभी देवताओंके पराक्रमको भी नष्ट कर चुके थे। इस प्रकार आपने शत्रुओपर भी अपनी दया ही प्रकट की है। वरदायिनी देवि! आपके इस पराक्रमकी किसके साथ तुलना हो सकती है तथा शत्रुओंको भय देनेवाला एवं अन्यन्त मनोहर ऐसा रूप भी आपके सिवा और कहाँ हैं? हृदयमें कृपा और युद्धमें निष्ठुता – ये दोनों बातें तीनों लोकोंके भीतर केवल आपमें ही देखी गयी हैं। मातः ! आपने शत्रुओंका नाश करके इस समस्त त्रिलोकीकी रक्षा की हैं। उन शत्रुओंको भी युद्धभूमिमें मारकर स्वर्गलोकमें पहुँचाया है तथा उन्मत दैत्योंसे प्राप्त होनेवाले हमलोगोंके भयको भी दूर कर दिया है, आपको हमारा नमस्कार है। देवि1 आप शूलसे हमारी रक्षा करें। अम्बिके1 आप खड्गसे भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टाकी ध्वनि और धनुषकी टंकारसे भी हमलोगोंकी रक्षा करें।। चण्डिके! पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशामें आप हमारी रक्षा करें तथा ईश्वरि! अपने त्रिशूलको घुमाकर आप उतर दिशामें भी हमारी रक्षा करें। तीनों लोकोंमें आपके जो परम सुन्दर एवं अत्यन्त भयंकर रूप विचरते रहते हैं, उनके द्वारा भी आप हमारी तथा भूलाकेकी रक्षा करें।। अम्बिके! आपके कर-पल्लवोंमें शोभा पानेवाले खड्ग, शूल और गदा आदि जो-जो अस्त्र हों, उन सबके द्वारा आप सब अब ओरसे हमलोगोंकी रक्षा करें।।
ऋषि कहते हैं- इस प्रकार जब देवताओंने जगन्माता दुर्गाकी स्तुति की और नन्दन-वनके दिव्य पुष्पों एवं गन्ध-चन्दन आदिके द्वारा उनका पूजन किया, फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक दिव्य धूपोंकी सुगन्ध निवेदन की, तब देवीने प्रसन्नवदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओंसे कहा-
छेवी बोलाीं- देवताओ तुम सब लोग मुझसे जिस वस्तु की अभिलाषा रखते होख् उसे माँगों।।
देवता बोले- भगवतीने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी, अब कुछ भी बाकी नहीं हैं।। क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया। महेश्वरि! इतनेपर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं तो हमज ब-जब आपका स्मरण करें, तब-तब आप दर्शन देकर हमलोगोंके महान् संकट दूर कर दिया करें तथा प्रसन्न मुखी अम्बिके! जो मनुष्य इन स्तोत्रोद्धारा आपकी स्तुति करे, उसे वित, समृद्धि और वैभव देनेके साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पति कों भी बढ़ाने के लिये आप सदा हम पर प्रसन्न रहें।।


ऋषि कहते हैं- राजन् देवताओं ने जब अपने तथा जगत्के कल्याण के लिये भद्रकाली देवी के इस प्रकार प्रसन्न किया, त बवे ’तथास्तु’ कहकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं।। भूपाल! ठस प्रकार देवताओं के शरीरों से प्रकट हुई थीं; वह सब कथा मैंने कह सुनायी ।। अब पुनः देवताओंका उपकार करनेवाली वे देवी दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ-निशुम्भ का वध करने एवं सब लोकोंकी रक्षा करनेके लिये गौरी देवी के शरीर से जिस प्रकार प्रकट हुई थीं वह सब प्रसंग मेरे मुँहसे सुनों। मैं उसका तुमसे यथावत् वर्णन करता हूँ।।


इस प्रकार श्री मर्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ’शक्रादिस्तुति ’ नामक चैथा अध्याय पुरा हुआ।।

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