मंगलवार, जुलाई 8, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Seventeen Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता का सत्रहवाँ अध्याय “श्रद्धात्रयविभाग योग” कहलाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रद्धा के तीन प्रकारों—सात्त्विक, राजसिक और तामसिक—का विस्तृत वर्णन किया है। यह अध्याय बताता है कि मनुष्य की श्रद्धा और उसका आचरण उसके स्वभाव और जीवन की दिशा को निर्धारित करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Seventeen Chapter Mahatmya

श्रीमहादेव जी कहते हैं- पार्वती! सोलहवें अध्यायका माहात्म्य बतलाया गया। अब सत्रहवें अध्यायकी अनन्त महिला श्रवण करो। राजा खड्गबाहु के पुत्रका दुःशसन नामक एक नौकर था। वह बड़ी खोटी बुद्धिका मनुष्य था। एक बार वह माण्डलीक राजकुमारों के साथ बहुत धनकी बाजी लगाकर हाथीपर चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जानेपर लोगें के मना करनेपर भी वह मूढ़ हाथी के प्रति जोर.जोर से कठोर शब्द करने लगा। उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोध से अंधा हो गया और दुःशासन पैर फिसल जाने के कारण पृथ्वीपर गिर पड़ा । दुःशासन को गिरकर कुछ.कुछ उच्छ्वास लेते देख कालके समान निंरकुश हाथी ने क्रोध मे भरकर उसे ऊपर फेक दिया । ऊपर से गिरते ही उसके प्राण निकल गये। इस प्रकार कालवश मृत्युको प्राप्त होने के बाद उसे हाथी की योनि मिली और सिंहलद्वीप के महारजा के यहाँ उसने अपना बहुत समय व्यतीत किया।
सिंहलद्वीप के राजाकी महाराज खड्गबाहू से बड़ी मैत्री थीए अतः उन्होंने जलके मार्ग से उस हाथी को मित्रकी प्रसन्ता के लिये भेज दिया। एक दिन राजाने श्लोक की समस्यापूर्तिसे संतुष्ट होकर किसी कविको पुरस्काररूप में वह हाथी दे दिया और उन्होंने सौ स्वर्ण.मुद्राएँ लेकर उसे मालवनरेशके हाथ बेच दिया। कुछ काल व्यतीत होनेपर वह हाथी यत्त्र.पूर्वक पालित होनेपर भी असाध्य ज्वरसे ग्रस्त होकर मरणसन्न हो गया। हाथीवानों ने जब उसे ऐसी शोचनीय.अवस्थामें देखा तो राजाके पास जाकर हाथी के हित के लिये शीध्र ही सारा हाल कह सुनाया। ष्महाराजाष् ! आपका हाथी अस्वस्थ जान पड़ता है। उसका खानाए पीना और सोना सब छूट गया है। हमारी समझ में नहीं आता इसका क्या कारण है। हाथीवानों का बताया हुआ समाचार सुनकर राजाने हाथी के रोग को पहचानने वाले चिकित्साकुशल मन्त्रियों के साथ उस स्थान पर पदार्पण कियाए जहाँ हाथी ज्सरग्रस्त होकर पड़ा था। राजा को देखते ही उसने ज्वरजनित वेदनाको भूलकर संसार को आश्रर्य में डालनेवाली वाणी में कहा . सर्म्पूण शास्त्रों के ज्ञाताए राजनीतिके समुद्रए शत्रु.समुदायको परास्त करने वाले तथा भगवानृ विष्णु के चरणों में अनुराग रखने वाले महाराज! इन औषधों से क्या लेना हैघ् वैद्यों से भी कुछ लाभ होनेवाला नहीं हैए दान और जपसे भी क्या सिद्ध होगाघ् आप कृपा करके गीता के सत्रहवेें अध्यायका पाठ करने वाले सिकी ब्राह्मण को बुलवाईये।।
हाथी के कथनासुसार राजाने सब कुछ वैसा ही किया। तदनन्तर गीता.पाठ करने वाले ब्राह्मण ने जब उत्तम जलको अभिमन्त्रित करके उसके ऊपर डालाए तब दुःशासन गजयोनिका परित्याग करके मुक्त हो गया। राजा ने दुःशासन को दिव्य विमानपर आरूढ़ एवं इन्द्र के समान तेजस्वी देखकर पूछा . तुम्हारी पूर्व.जन्म में क्या जाति थीघ् क्या स्वरूप थाघ् कैसे आचरण थेघ् और किस कर्मसे तुम यहाँ हाथी होकर आये थेघ् ये सारी बातें मुझे बताओ। राजा के इस प्रकार पूछने पर संकटसे छूटे हुए दुःशासनने विमान पर बैठे.ही.बैठे स्थिरता के साथ अपना पूर्वजम्मका उपर्युक्त समाचार यथावत् कह सुनाया। तत्पश्रात् नरश्रेष्ठ मालवनरेश भी गीता के सत्रहवे अध्याय का पाठ करने लगे। इससे थोड़े ही समय में उकनी मुक्ति हो गयी।

सत्रहवाँ अध्याय


इस प्रकार भगवान् के वचन सुनकर अर्जुन बोलेए हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर केवल श्रद्धासे युक्तहुए देवादिकों का पूजन करते हैं उनकी स्थिति फिर कौन सी है क्या सासत्रहवाँ अध्यायवकी हैघ् अथवा राजसी किंवा तामसी है। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकष्ण भगवानृ बोलेए हे अर्जुन! मनुष्यों की वह बिना शास्त्रीय संस्कारों के केवल स्वभावसे उत्पन्न हुई श्रद्धा सासत्रहवाँ अध्यायवकी और राजसी तथ तामसी ऐसे तीनों प्रकार की ही होती हैए उसको तू मेरे से सुन।। हे भारत ! सभी मनुष्यो की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय हैए इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला हैए वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा हैए वेसा ही उसका स्वरूप है उनमें सात्तवक पुरुष तो देवों को पूजते हैं और राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैंए वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं। हे अर्जुन! जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तपको तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामनाए आसक्ति और बलके अभिमान से भी युक्त हैं। तथा जो शरीररूपसे स्थित भूतसमुदायाको अर्थात् शरीरए मन और इन्द्रियादिकों के रूपमें परिणत हुए आकाषदि पाँच भूतों को और अन्तःकरण में स्थित मुझ अन्तर्यामी को भी कृश करने वाले है। उन अज्ञानियों को तू आसुरी स्वभाववाले जान।। हे अर्जुन! जैसे श्रद्धा तीन प्रकारकी होती हैए वैसी ही भोजन भी सबको अपनी.अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैेसे ही यज्ञए तप औरदान भी तीन.तीन प्रकार के होते हैय उनके इस न्यारे.न्यारे भेदको तू मेरे से सुन। आयुए बुद्धिए बलए अरोग्यए सुख और प्रीतिकों बढ़ानेवाले एवं रसयुक्त चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वाभावसे ही मनको प्रिय ऐसे आहार अर्थातृ भोजन करने के पदार्थ तो सात्तवक पुरुष को प्रिय होते है। कडुवेए खट्टेए लवणयुक्त और अति गरम तथा तीक्ष्णए रूखे और दाहकारक एवं दुःख चिन्ता और रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थातृ भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। तथा जो भोजन अधपकाए रसरहित और दुर्गन्धयुक्त एवं बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी हैए वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है।।

हे अर्जुन! जो यज्ञ शास्त्रविधि से किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है ऐसे मनको समाधान करके फलको न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता हैए वह यज्ञ तो सात्तत्व है और हे अर्जुन! जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के ही लिये अथवा फलको भी उदेश्य रखकर किया जाता हैए उस यज्ञको तू राजसे जान तथा शास्त्रविधि से हीन और अन्नदान से रहित एवं बिना मन्त्रों के ए बिना दक्षिण के और बिना श्रद्धा के के ये हुए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते है।।

हे अर्जुन! देवता ए ब्राह्मण गुरू और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रताए सरलताए ब्रह्मचर्य और अहिंसाए यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता हैं तथा जो उद्वेगको न करने वाला ए प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो वेदशास्त्रों क पढ़ने का एवं परमेश्रर के नाम जपने का अभ्यास हैए वह निःसंन्देह वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है तथा मनकी प्रसन्ता और शान्तभाव एवं भगवत्.चिन्तन करने का स्वभावए मनका निग्रह और अन्तःकरण की पवित्रता ऐसे यह मनस्मबन्धी तप कहा जात है। पंरतु हे अर्जुन! फलको न चाहनेवाले निश्कामी येागी सात्तवक कहते हैं और जो तप पूर्वोक्त तीन प्रकार के तपको सात्तवक कहते हैं। और जो तप सत्कारए मान और पूजाके लिये अथवा केवल पाखण्डसे ही किया जाता हैए वह अन्श्रिित और क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है।। जो तप मूढ़तापूर्वक हठसे मनए वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करके के लिये किया जाता हैए वह तप तामस कहा गया है और हे अर्जुन ! दान देना ही कर्तव्य हैए ऐसे भावसे जो दान देश काल और पात्रको प्राप्त होनेपर प्रत्युपकार न करने वाले के लिये दिया जाता हैए वह दान तो सात्तवक कहा गया है।। और जो दान केशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजनसे अर्थात् बदले में अपना सांसारिक कार्य सिद्ध करने की आशासे अथवा फलको उद्देश्स रखकर फिर दिया जाता हैए वह दान राजस दान कहा गया है और जो दान बिना सत्कार किये अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश.कालमेंए कुपात्रों के लिये अर्थात् मद्य मांसादि अभक्ष्य वस्तुओं के खानेवालों एव चोरीए जारी आदि नीच कर्म करने वालों के लिये दिया जाता हैए वह दान तामस कहा गया है।।

हे अर्जुन!
ओम् ए तत्ए सतृ . ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका नाम कहा हैए उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गये हैं। इसलिये वेदको कथन करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत की हुई यज्ञए दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ओम् ऐसे इस परमात्मा के नामको चच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं तत् अर्थातृ तत् नाम से कहे जानेवाले परमात्माका ही यह सब क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याणकी इच्छावाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं। सत् ऐसे यह परमात्मा के नाम सत्यभावमें और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ ! उत्तम कर्ममें सत्.शब्द प्रयोग किया जाता है तथा यज्ञए तप और दानमें जो स्थिति हैए वह भी सत् हैए ऐसे ही कही जाती हे और उस परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्रयपूर्वक सतृ हैए ऐसे कहा जाता हे हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के होमा हुआ वचन तथा दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म हैए वह समस्त असतृ ऐसे कहा जाता हैए इसलिये वह न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरने के पीछे ही लाभदायक हैए इसलिये मनुष्यको चाहिये कि सच्चिदानन्दघन परमात्मा के नामका निरन्तर चिन्तर करता हुआ निष्कामभावसेए केवल परमेश्रवर के लियेए शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्मो का परम श्रद्धा और उत्साह के सहित आचरण करे।।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषदृ एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ष्ष्श्रद्धात्रयविभागयोगष्ष् नामक सत्रहवाँ अध्याय।।

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