मंगलवार, जुलाई 8, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके सोलहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Sixteen Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता का सोलहवाँ अध्याय “दैवासुर संपद्विभाग योग” कहलाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्य (दैवी) और आसुरी (अधर्मिक) प्रवृत्तियों का वर्णन किया है। यह अध्याय हमें यह समझने में मदद करता है कि कौन-से गुण हमें ईश्वर की ओर ले जाते हैं और कौन-से गुण हमें अधोगति की ओर धकेलते हैं।

श्रीमहादेवजी कहते हैं. पार्वती ! अब मैं गीता के सोलहवें अध्याय का माहात्म्य बताऊँगाए सुनों! गुजरात में सौराष्ट्र नामक एक नगर है। वहाँ खड्ग्बाहु नाम के राजा राज्य करते थेए जो दूसरे इन्द्र के समान प्रतापी थे। उनके एक हाथी थाए जो मद बहाया करता और सदा मदसे उन्मत्त रहता था। उस हाथी का नाम अरिमर्दन था। एक दिन रात में वह हठात् साँकलों और लोहे के खम्भो को तोड़.फोड़कर बाहर निकला। हाथीवान् उसने दोनों ओर अडकुश लेकर डरा रहे थे। किंतु क्रोधवश उन सबकी अवहेलान करके उसने अपने रहने के स्थान . हथिसार को ढहा दिया। उसपर चारों ओर से भालों की मार पड़ रही थीय फिर भी हाथीवान् ही डरे हुए थेए हाथीको तनिक भी भय नहीं होता था। इस कौतूहलपूर्ण घटनाको सुनकर राजा स्वयं हाथी को मनाने की कलामें निपुण राजकुमारो के साथ वहाँ आये। आकर उन्होंने उस बलवान् दँतैले हाथी को देखा। नगर के निवासी अन्य काम.धंधों की चिन्ता छोड़ अपने बालकों को भय से बचाते हुए बहुत दूर खड़े होकर उस महाभयंकर गजरा को देखते रहे। इसी समय कोई ब्राह्मण तालाब से नहाकर उसी मार्ग से लौटे। वे गीता के सोलहवें अध्याय के ष्अभयम्ष् आदि कुछ श्लोकों का जप कर रहे थे। पुरवासियों और पीलवानों ;महावतोंद्ध ने उन्हें बहुत मना कियाए किंतु उन्होंने किसी की न मानी । उन्हें हाथी से भय नहीं था ए इसलिये वे विचलित नहीं हुए। उधर हाथी अपने फूत्कार से चारों दिशाओं को व्याप्त करता हुआ लोगों को कुचल रहा थां वे ब्राह्मण उसके बहते हुए मदको हाथ से छूकर कुशलपूर्वक ;निर्भयता द्ध . से निकल गये। इससे वहाँ राजा तथा देखने वाले पुरवासियों के मन में इनता विस्मय हुआ कि उसका वर्णन नहीं हो सकता । राजा के कमलनेत्र चकित हो उठे थे। उन्होंने ब्राह्मण को बुला सवारीसे उतरकर उन्हें प्रणाम किया और पूछा . ब्रह्मन! आज आपने यह महान् अलौकिक कार्य किया हैय क्योंकि इस काल के समान भयंकर गजराज के सामने से आप सकुशल लौट आये हैं। प्रभों! आप किस देवता का पूजन तथा किस मन्त्रका जप करते हैंघ् बताइयेए आपने कौन सी सिद्धि प्राप्त की है!!

ब्राह्मण ने कहा . राजन! मैं प्रतिदिन गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोंकों का जप किया करता हूँए इसीसे ये सारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं।

श्रीमहादेवजी कहते हैं – तब हाथीका कौतूहल देखने की इच्छा छोड़कर राजा ब्राह्मण देवता को साथ ले अपने महल में आये। वहाँ शुभ मुहूर्त देखकर एक लाख स्वर्णमुद्राओ की दक्षिण दे उन्होंने ब्राह्मण को संतुष्ट किया और उनसे गीता.मन्त्र की दीक्षा ली । गीता के सोलहवें अध्याय के ष्अभयम्ष् आदि कुछ श्लोकों का अभ्यास कर लेने के बाद उनके मन में हाथी को छोड़कर उसके कौतुक देखने की इच्छा जाग्रत् हुई। फिर तो एक दिन सैनिको के साथ बाहर निकल कर राजाने हाथीवानों से उसी मंत्र गजराजका बन्धन खुलवायां। वे निर्भय हो गयें। राज्य के सुख.विलासे के प्रति आदरका भाव नहीं रहा। वे अपना जीवन तृणपत् समझकर हाथी के सामने चले गये। साहसी मनुष्यो में अग्रगण्य राजा सड्गबाहु मन्त्रपर विश्रास करके हाथी के समीप गये और मदकी अनवरत धारा बहते हूए उसके गण्डस्थलको हाथ से छूकर सकुशल लौट आये। कालके मुख से धार्मिक और खलके साधु पुरुष की भाँति राजा उस गजराजके मुख से बचकर निकल आये। नगर में आनेपर उन्होंने अपने राजकुमार को राज्यपर अभिषिक्त कर दिया तथा स्वयं गीता के सोलहवें अध्याय का पाठ करके परमगति प्राप्त की।

सोलहवाँ अध्याय


उसके उपरान्त श्रीकृष्ण भगवान् फिर बोलेए हे अर्जुन! दैव सम्पदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी सम्पदा प्राप्त हैए उनके लक्षण पृथक्.पृथ्क् कहता हूँए उनमें से सर्वथा भयका अभावए अन्तःकरण की अच्छी प्रकार से स्वच्छताए तŸवज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्तवक दान तथा इन्द्रियों का दमनए भगवत्पूजा और अग्रिहोत्रादि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद.शास्त्रों के पठन.पाठनपूर्वक भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन तथा स्वधर्म.पालन के लिये कष्ट सहन करना एवं शरीर और इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता । तथा मनए वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना तथा यथार्थ और प्रिय भाषण ए अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोधका न होनाए कर्मों के कर्तापन के अभिमानका त्याग एवं अन्तःकरण की उपरामता अर्थातृ चित्तकी चन्चलता का अभाव और किसी की भी निन्दादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में हेतुरहित दयाय इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होनेपर भी आसक्तिका न होना और कोमलता तथा लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव तथा तेज क्षमाए धैर्य और बाहर.भीतर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रु भावका न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभावए यह सब तो हे अर्जुन! दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए पुरुष लक्षण है।।

हे पार्थ! पाखण्डए घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान भी ए यह सब आसुरी सम्पदाको प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। उन दोनों प्रकारकी सम्पदाओं में दैवी सम्पदा तो मुक्तिके लिये और आसुरी सम्पदा बाँधने के निलये मानी गयी हैए इसलिये हे अर्जुन! तू शोक मत करय क्योंकि तू दैवी सम्पदाको प्राप्त हुआ है।।

हे अर्जुन! इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गये हैं। एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसाए उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया हैए इसलिये अब असुरों के स्वभावको भी विस्तार पूर्वक मेरे से सुन। हे अर्जुन! आसुरी स्वभाववाले मनुष्य कर्तव्यकार्यमें प्रवृत्त होने को अकर्तव्यकार्यसे निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैंए इसलिये उनमे न तो बाहर.भीतरकी शुद्धि हैए न श्रेष्ठ आचरण और न सत्यभाषण ही है। वे आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य कहते हैं कि जगत् आश्रयरहित और सर्वथा झूठा एवं बिना ईश्वर के अपने.आप स़्त्री.पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ हैय इसलिये केवल भोगों को भोगने के लिये ही हैए इसके सिवा और क्या है। इस प्रकार इस मिथ्या ज्ञानको अवलम्बन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मन्द है बुद्धि जिनकीए ऐसे वे सबका अपकार करनेवाल क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत् का नाश करने के लिये ही उत्पन्न होते हैं। वे मनुष्य दम्भए मान और मदसे युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होने वाली कामनाअेां का आसरा लेकर तथा अज्ञानसे मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार मे बर्तते हैं वे मरणपर्यन्त रहनेवाली अनन्त चिन्ताओ को आश्रय किये हुए और विषयभोगों के भोगने में तत्पर हुए एवं इतनामात्र ही आनन्द हैए ऐसे मानने वाले हैं इसलिये आशारूप सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए और काम.क्रोध के परायण हुए विषय भागों की पूर्तिके लिये अन्ययायपूर्वक धनादिक बहुत.से पदार्थो को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं। उन पुरुषों के विचार इस प्रकार के होते हैं कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊँगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह होवेगा वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूँगा तथा मैं ईश्वर और ऐश्रवर्य भोगनेवाला हूँ और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान् और सुखी हूँ मै। धनवान् और बड़े कुटुम्बवाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन हेए मैं यज्ञ करूँगाए दान दूँगाए हर्षको प्राप्त होऊँगाए इस प्रकार के अज्ञान से मोहित हैं।
इसलिये वे अनेक प्रकारसे भ्रमित हुए चित्त वाले अज्ञानीजन मोहरूप जालमें फँसे हुए एवं विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त हुए महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं वे अपने.आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मानके मदसे युक्त हुएए शास्त्रविधि से रहित केवल नाममात्रके यज्ञों द्वारा पाखण्डसे यजन करते हैं। वे अहंकारए बलए घमण्डए कामना और क्रोधादि के परायण हुए एवं दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामीसे द्वेष करने वाले हैं। ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधर्मो को मैं संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात् शूकरए कूकर आदि नीच योनियों में ही उत्पन करता हूँ। इसलिये हे अर्जुन! वे मूढ़ पुरुष जन्म.जन्म में आसुरीयोनिको प्राप्त हुए मेरे को न प्राप्त होकर उससे भी अति नीच गतिको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं।

हे अर्जुन! कामए क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्माका नाश करनेवाले हैं अर्थात् अधोगति में ले जानेवाले हैंए इससे इन तीनों को त्याग देना चाहिये क्यांेकि हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से युक्त हुआ अर्थात् कामए क्रोध और लोभादि विकारो से छूटा हुआ पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है इससे वह परम गतिको जाता है अर्थातृ मेरे को प्राप्त होता है जो पुरुष शास्त्र की विधिको त्यागकर अपनी इन्छासे बर्तता हैए वह न तो सिद्धिको प्राप्त होता है और न परमगतिको तथा न सुखको ही प्राप्त होता है। इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैए ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्मको ही करने के लिये योग्य है।।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषदृ एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ष्ष्दैवासुरसम्पद्विभागयोगष्ष् नामक सोलहवाँ अध्याय।।

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