सोमवार, जुलाई 7, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें अध्यायका माहात्म्य|| Srimad Bhagavad Gita Fifteen Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता का पंद्रहवाँ अध्याय “पुरुषोत्तम योग” कहलाता है। यह अध्याय गीता के सबसे महत्वपूर्ण और संक्षिप्त अध्यायों में से एक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने संसार रूपी अश्वत्थ वृक्ष का रहस्य बताया है और अपने “पुरुषोत्तम” स्वरूप का वर्णन किया है। यह अध्याय जीवात्मा को आत्म-ज्ञान और परमात्मा की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है। श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें अध्यायका माहात्म्य|| Srimad Bhagavad Gita Fifteen Chapter Mahatmya

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती ! अब गीता के पंद्रहवे अध्यायका माहात्म्य सुनों। गौड़देश में कृपाण-नरसिंह नामक एक राजा थे, जिनकी तलवार की धारसे युद्ध में देवता भी परास्त हो जाते थे। उनका बुद्धिमान् सेनापति शास्त्र और शास्त्र की कलाओं का भण्डार था। उसका नाम था सरभमेरुण्ड। उसकी भुजाओं में प्रचझड बल था। एक समय उस पापीने राजकुमारों सहित महाराजका वध करके स्वयं ही राज्य करने का विचार किया । इस निश्चय के कुछ ही दिनों बाद वह हैजेका शिकार होकर मर गया। थोड़े समय में वह पापात्मा अपने पूर्वकर्मके कारण सिन्धुदेश में एक तेजस्वी घोड़ा हुआ। उसका पेट सटा हुआ था। घोड़ेके लक्षणों का ठीक-ठीक ज्ञान रखने वाले किसी वैश्व के पुत्र ने बहुत-सा मूल्य देकर उस अश्व को खरीद लिया और यत्त्र के साथ उसे राजधानीतक वह ले आया। वैश्य कुमार वह अश्व राजा को देने को लाया था। यद्यपि राजा उस वैश्यकुमार से परिचित थे, तथापि द्वारपालने जाकर उसके आगमनकी सूचना दी। राजा ने पूछा – किसलिये आये हो? तब उसने स्पष्ट शब्दोंमें उतर दिया – देव ! सिन्धुदेश में एक उत्तम लक्षणो से सम्पन्न अश्व था, सिे तीनों लोकों का एक रत्न समझकर मैंने बहुत-सा मुल्य देकर खरीद लिया है। राजाने आज्ञा दी – उस अश्व को यहाँ ले आओं।
वास्तव में वह घोड़ा गुणो में उच्चैःश्रवा के समान था। सुन्दर रूपका तो मानो घर ही था। शुभ लक्षणों का समुद्र जान पड़ता था। वैश्व घोड़ा ले आया और राजा ने उसे देखा। अश्व का लक्षण जानने वाल ेअमत्यों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की। सुनकर राजा अपार आनन्द में निमग्र हो गये और उन्होंने वैश्व को मुँहमाँगा सुवर्ण देकर तुरंत ही उस अश्व को खरीद लिया। कुछ दिनो के बाद एक समय राजा शिकार खेलने के लिये उत्सुक हो उसी घोडे पर चढ़कर वनमें गये। वहाँ मृगों के पीछे इन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया । पीछे-पीछे सब ओर से दौड़कर आते हुए समस्त सैनिकों का साथ छूट गया। वे हिरनों द्वारा आकृष्ट होकर बहुत दूर निकल गये। प्यास ने उन्हें व्याकुल कर दिया। तब वे घोड़े से उतर कर जलकी खोज करने लगे। घोड़े को तो उन्होंने वृक्षकी डाली में बाँध दिया और स्वयं एक चट्टान पर चढ़ने लगे। कुछ दूर जाने पर उन्होंने देखा कि एक पत्तका टूकड़ा हवासे उड़कर शिलाखण्ड पर गिरा है। उसमें गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा हुआ था। राजा ने बाँचने लगे। उनके मुखसे गीता के अक्षर सुनकर घोड़ा तुरंत गिर पड़ा और अश्व- शरीर को छोड़कर तुरंत ही दिव्य विमान पर बैठकर वह स्वर्गलोक को चला गया। तत्पछात जाना ने पहाड़पर चढत्रकर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ नागकेशर, केले, आम और नारियल के वृक्ष लहरा रहे थे। आश्रम के भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो संसारकी वासनाओें से मुक्त थे। राजाने उन्हें प्रणाम करके बड़ी भक्ति के साथ पूछा – ब्रह्मन् ! मेरा अश्व जो अभी-अभी स्वर्गको चला गया है, उसमें क्या कारण है?
राजाकी बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मन्त्रवेत्त एवं महापुरुषों में श्रेष्ठ विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मण ने कहा – राजन्! पूर्वकाल में तुम्हारे यहाँ जो सरभमेरुण्ड नामक सेनापति नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रोंसहित मारकर स्वयं राज्य हड़प लेने को तैयार था। इसी बीच में हैजे का शिकार होकर वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसके बाद वह सी पाप से घोड़ा हुआ था। यहाँ कहीं गीता के पंद्रहवें अध्यायका आधा श्लोंक लिखा मिल गया था, उसे ही तुम बाँचने लगें उसकी को तुम्हारे मुखसे सुनकर वह अश्व स्वर्गको प्राप्त हुआ है।
तदनन्तर राजा के पार्श्वती। सौनिक उन्हें ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँचे । उन सब के साथ ब्राह्मण को प्रणाम करके राजा प्रसन्न पूर्वक वहाँ से चले और गीता के पंद्रहवें अध्याय के श्लोकाक्षरों से अकित उसी पत्रको बाँच-बाँच कर प्रसन्न होने लगे। नेत्र हर्ष से खिल उठे थे। घर आकर उन्हों ने मन्त्रवेत्त मन्त्रियों के साथ अपने पुत्र सिंहबलको राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त किया और स्वयं पंद्रहवें अध्याय के जपसे विशुद्धचित होकर मोक्ष प्राप्त कर लिया।

पंद्रहवाँ अध्याय


उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले कि हे अर्जुन! आदिपुरुष परमेश्रवर रूप मूलवाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखावाले जिस संसाररूप पीपलके वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा जिसके वेद पत्त कहे गये हैं; उस संसाररूप वृक्षको जो पुरुष मूलसहित तत्वसे जानता है, वह वेद के तात्पर्यको जानने वाला है। हे अर्जुन! उस संसा-वृक्ष की तीनों गुणरूप जलके द्वारा बढी हुई एवं विषय भोगरूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक् आदियोनिरूप शाखाएँ नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्ययोनि में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। परंतु इस संसारवृक्षका स्वरूप जैसा कहा है, वैसा यहाँ विचारकाल में नहीं पाया जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अन्त है तथा न अच्छी प्रकारसे स्थिति ही है; इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपलके वृक्षको दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा काटकर उसके उपरान्त उस परमपदरूप परमेश्रवर अच्छी प्रकार खोजना चहिये कि जिसमें गये हुए पुरुष फिर पीछे संसार में नहीं आते हैं और जिस परमेश्वर यह पुरातन संसारवृक्षकी प्रवृति विस्तारको प्राप्त हुई है, उस ही आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ, इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके नष्ट हो गया हैै मान और मोह जिनका तथा जीत लिया है आसक्तिरूप दोष जिनने और परमात्मा के स्वरूप में है निरन्तर स्थिति जिनकी तथा अच्छी प्रकार से नष्ट हो गयी है कामना जिनकी, ऐसे वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हुए ज्ञानी जन, उस अविनाशी परमपदको प्राप्त होते हैं।।
उस स्वयं प्रकाशमय परमपदको न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्रि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परमपदको प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते हैं, वही मेरा परमधाम है।।

हे अर्जुन ! इस देहमें यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मनसहित पाँचों इन्द्रियो को आकर्षण करता है। कैसे कि वायु गन्ध के स्थान से गन्धको जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीरको त्यागता है, उससे जाता है उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वाचाको तथा रसाना, घ्रण और मनको आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारे से ही विषयों को सेवन करता है। परंतु शरीर छोड़कर जाते हुएको अथवा शरीर में स्थित हुएको और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञानरूप ने़त्रों वाले ज्ञानी जन ही तत्व से जानते हैं। क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्माको य़त्र करते हुए ही तत्व से जानते हैं और जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यन्त्र करते हुए भी इस आत्माको नही जानते हैं।।

हे अर्जुन! जो तेज सूर्य में स्थित हुआ सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में स्थित है और जो तेज अग्रि में स्थित है उसको तू मेरा ही तेज जान और मै। ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात् वनस्पतियो को पुष्ट करता हूँ। तथा मैं ही सब प्राणियो के शरीर में स्थित हुआ वैश्रानर अग्रिरूप होकर प्राण और अपानसे युक्त हुआ चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामीरूप से स्थित हूँ तथा मेरेसे ही स्मृतिए ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूँ तथ वेदान्तका कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।

हे अर्जुन ! इस संसार में नाशवान् और अविनाशी भी यह दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियांे के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाात है । तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है कि जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण.पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा ऐसे कहा गया है। क्योंकि मैं नाशवान् जडवर्ग क्षेत्रसे तो सर्वथा अतीत हूँ और वेदमें भी पुरुषोंतम नाम से प्रसिद्ध हूँ हे भारत ! इस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोंतम जानता हैए वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्रवर ही भजता है। हे निष्पाप अर्जुन! ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरेद्वारा कहा गयाए इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है अर्थात् उसको और कुछ भी करना शेष नहीं रहता ।।
इस अध्याय में भगवान् ने अपना परम गोपनीय प्रभाव भली प्रकार से कहा है। जो मनुष्य उक्त प्रकार से भगवान् को सर्वोत्तम समझ लेता हैए फिर उसका मन एक क्षण भी भगवान् के चिन्तनका त्याग नहीं कर सकता य क्योंकि जिस वस्तुको मनुष्य उत्तम समझता हैए उसी में उसका प्रेम होता है और जिसमें प्रेम होता हैए उसीका चिन्तन होता हैै। अतएव सबका मुख्य कर्तव्य है कि भगवान् के परमगोपनीय प्रभाव को भली प्रकार समझने के लिये नाशवान्ए क्षणभगुर संसार की आसक्तिका सर्वथा त्याग करके एवं परमात्मा के शरण होकर भजन और सत्संग की ही विशेष चेष्टा करें।

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