मंगलवार, जुलाई 8, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Twelfth Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता का बारहवाँ अध्याय “भक्तियोग” के नाम से प्रसिद्ध है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि श्रेष्ठ योग क्या है—आत्मसाक्षात्कार के लिए भक्तियोग श्रेष्ठ है या ज्ञानयोग? भगवान ने स्पष्ट किया कि जो भक्त प्रेमपूर्वक, निष्काम भाव से केवल उन पर श्रद्धा रखता है और अनन्य भाव से उनकी भक्ति करता है, वही उन्हें सबसे प्रिय है। श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Twelfth Chapter Mahatmya

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती ! दक्षिण दिशा में कोल्हापुर नामका एक नगर है, जो सब प्रकार के सुखों का आधार , सिद्ध-महात्माओं का निवास स्थान तथा सिद्धि-प्रप्ति का क्षेत्र है। वह पराशक्ति भगवती लक्ष्मीका प्रधान पीठ है। सम्पूर्ण देवता उसका सेवन करते है। वह पुराणप्रसिद्ध तीर्थ भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाला है। करोड़ों तीर्थ और शिवलिंग हैं। रुद्रगया भी वहीं है। वह विशाल नगर लोगों में बहुत विख्यात है। एक दिन कोई युवक पुरुष उस नगर में आया। वह कहीं का राजकुमार था। उसके शरीर का रंग गोरा, नेत्र सुन्दर, ग्रीवा शख्य के समान, कंधे मोटे, छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। नगर में प्रवेश करके सब ओर महलोंकी शोभा निहारता हुआ वह देवेश्ररी महालक्ष्मी दर्शनार्थ उत्क्ण्ठित हो मणिकण्ठ तीर्थ में गया और वहाँ स्नान करके उसने पितरोंका तर्पण किया। फिर महामाया महालक्ष्मी जी को प्रणाम करके भक्तिपूर्वक स्तवन करना आरम्भ किया।

राजकुमार बोला – जिसके हृदय में असीम दया भरी हुई है, जो समस्त कामनाओं को देती तथा अपने कटाक्षमात्र से सारे जगत् को सृष्टि , पालन और संहार करती है, उस जगन्माता महालक्ष्मी की जय हो। जिस शक्ति के सहारे उसी के आदेश के अनुसार परमेष्ठी ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, भगवान् अच्चुत जगत् का पालन करते हैं तथा भगवान् रुद्र अखिल विश्व का संहार करते हैं, उस सृष्टि पालन और संहारकी शक्ति से सम्पन भगवती पराशक्ति का मैं भजन करता हूँ।
कमले! योगिजन तुम्हारे चरणकमलो का चिन्तन करते हैं। कमलालये! तुम अपनी स्वाभाविक सार्थ से ही हमारे समस्त इन्द्रियगोचर विषयों को जानती हो। तुम्ही कल्पनाओं के समूह को तथा उसका संकल्प करने वाले मनको उत्पन करती हों। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रिया शक्ति -ये सब तुम्हारे ही रूप हैं। तुम परासंवित् (परमज्ञान) – रूपिणी हो। तुम्हारा स्वरूप निष्कल निर्मल, नित्य , निराकार, निरझर, अन्तरहित, आतडक्शून्य आलम्बहीन तथा निरामय है। देवि! तुम्हारी महिमा का वर्णन करने मे कौन समर्थ हो सकता है। जो षट्चक्रोंका भेदन करके अन्तःकरण के बारह स्थानों में विहार करती है, अनाहत, ध्वनि, विन्दु, नाद और कला – ये जिसके स्वरूप हैं, उस माता महालक्ष्मी को मैं प्रणाम करता हूँ। माता ! तुम अपने (मुखरूपी) पूर्णचन्द्रमासे प्रकट होने वाली अमृतराशि को बहाया करती हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमी और वैखरी नामक वाणी हो। मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। देवि! तुम जगत् की रक्षा के लिये अनेक रूप धारण किया करती हों। अम्बिके ! तुम्ही ब्राह्मी, वैष्णवी तथा माहेश्रवरी शक्ति हो। वाराही, महालक्ष्मी, नारसिंही, ऐन्द्री, कौमारी, चण्डिका, जगत् को पवित्र करने वाली लक्ष्मी जगन्माता सावित्री, चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्हीं हो परमेश्रवरी ! तुम भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिये कल्पलता के समान हो। मुझ पर प्रसन्न हो जाओं।।
उसके इस प्रकार स्तुति करने पर भगवती महालक्ष्मी अपना साक्षत् स्वरूप धारण करके बोलीं- राजकुमार ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ तुम कोई उत्तम वर माँगों।।

राजपूत्र बोला – माँ ! मेरे पिता राज बृहद्रथ अश्रवमेघ नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे। वे दैवयोगसे रोगग्रास्त होकर स्वर्गगामी हो गये। इसी बीच में युप में बँधे हुए मेरे यज्ञसम्बधी घोडे़को जो समूची पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटा था, किसी ने रात्रि में बन्धन काटकर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया। उसकी खोज में मैंने कुछ लोगों को भेजा था; किंतु वे कहीं भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं, तक मैं सब ऋत्विजों से आज्ञा लेकर तुम्हारी शरण में आया हूँ देवि! यदि तुम मुझपर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञ का घोड़ा मुझे मिल जाय, जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके।। तभी मैं अपने पिता महाराज का ऋण उतार सकूँगा। शरणगतोें पर दया करने वाली जगज्जननी लक्ष्मी ! जिससे मेरा यज्ञ पुर्ण हो, वह उपाय करो।

भगवती लक्ष्मीने कहा – राजकुमार! मेरे मन्दिर के दरवाजे पर एक ब्राह्मण रहते हैं, जो लोगों में सिद्धसमाधि के नामसे विख्यात है। वे मेरी आज्ञा से तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगें।
महाललक्ष्मी के इस प्रकार कहने पर राजकुमार उस स्थान पर आये, जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे। उनके चरणों में प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ कर खड़े हो गये। तब ब्राह्मणने कहा – तुम्हें माता जी ने यहाँ भेजा हैं। अच्छा देखों ; अब मैं तुम्हारे सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करता हूँ। यों कहकर मन्त्रवेत्त ब्राह्मण ने सब देवताओं को वहीं खीचा।
राजकुमार ने देखाख् उस समय सब देवता हाथ जोड़े थर-थर काँपते हुए वहाँ उपस्थित हो गये । तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मणने समस्त देवताओ से कहा – देवता गण ! इस राजकुमार का अश्रव, जो यज्ञ के लिये निश्रित हो चुका था, रात में देवराज इन्द्रने चुराकर अन्यत्र पहुँचा दिया हैं; उसे शीघ्र ले आओं ।
तक देवताओं ने मुनि के कहने से यज्ञका घोड़ा लाकर दे दिया। इसके बाद उन्होंने उन्हें जाने की आज्ञा दी। देवताओं का आकर्षण देखकर तथा ,खोंये हुए अश्रवों पाकर राजकुमार ने मुनिके चरणों में प्रणाम करके कहा – महर्षे ! आपका सामर्थ्य आश्रर्यजनक है। आप ही ऐसा कार्य कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं ब्रह्मन् ! मेरी प्रार्थना सुनिये, मेरे पिताद राजा बृहद्रथ अश्रवमेघ यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोगसे मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं। अभी तक उनका शरीर तपाये हुए तेल में सुखा कर मैंने रख छोड़ा है। साधुश्रेष्ठ! आप उन्हें पुनः जीवित कर दीजिये।

यह सुनकर महामुनि ब्राह्मणने किंचित् मुसकराकर कहा – चलों, यहाँ यज्ञमण्डप में तुम्हारे पिता मौजूद हैं, चलें! तब सिद्धसमाधिने राजकुमार के साथ वहाँ जाकर जल अभिमन्त्रित किया और उसे उस शवके मस्तकर पर रखा। उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे। फिर उन्होंने ब्राह्मण को देखकर पूछा -धर्मस्वरूप ! आप कौन हैं? तब राजकुमार ने महाराज से पहले का सारा हाल कह सुनाया। राजाने अपने को पुनः जीवनदान देने वाले ब्राह्मण को नमस्कार करके पूछा – ब्रह्मन् ! किस पुण्यसे आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई है? उनके यों कहने पर ब्राह्मण ने मधुर वाणी मे कहा -राजन्! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीता के बारहवें अध्यायका जप करता हूँ; उसी से मुझे यह शक्ति मिली है, जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है। यह सुनकर ब्राह्मणों सहित राजा ने उन ब्रह्मार्षि से गीता के बारहवें अध्याय का अध्ययन किया। उसके माहात्म्य से उन सबकी सद्गति हो गयी। दूसरे-दूसरे जीव भी उसके पाठ से परम मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं।
बारहवाँ अध्याय

इस प्रकार भगवान् के वचनों को सुनकर अर्जुन बोले, हे मनहोहर ! जो अनन्य प्रेमी भक्तजन इस पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे हुए आप सगुणरूप परमेश्रवर को आति श्रेष्ठ भाव से उपासते हैं और जो अविनाशी सच्चिदानन्दघन, निराकार को ही उपासते हैं, उन दोनों प्रकार के भक्तों में अति उत्तम योगवेता कौन हैं।
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले, हे अर्जुन ! मेरे में मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्रवर को भजते हैं, वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं, अर्थात् उनको मैं अतिश्रेष्ठ मानता हूँ और जो पुरुष इन्द्रियों के समुदायको अच्छी प्रकार वशमें करके मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हुए उपासते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सबमें समान भाववाले योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं। किंतु उन सच्चिदानन्दघन, निराकार ब्रह्म में आसक्त हुए चित्तवाले पुरुषो के साधन में कलेश अर्थात परिश्रम विशेष है, क्योंकि देहाभिमानियों से अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है अर्थात् जबतक शरीर मे अभिमान रहता है, तबतक शुद्ध सच्चिदानन्दघन, निराकार ब्रह्म में स्थिति होनी कठिन हैं। और जो मेरे परायण हुए भक्तजन, सम्पूर्ण कर्मों को मेरेे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्रवर को ही तैलधाराके सदृश अनन्य-ध्यानयोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं हे अर्जुन! उन मेरे में चित्त को लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करने वाला होता हूँ।
इसलिये हे अर्जुन! तू मेरे में मनको लगा और मेरे में ही बुद्धिको लगा, इसके उपरान्त तू मेरे मे ही निवास करेगा अर्थात् मेरे को ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। यदि तू मनको मेरे में अचल स्थापन करने के लिये समर्थ नहीं हैं, तो हे अर्जुन ! अभ्यासरूप येाग के द्वारा मेरे को प्राप्त होने के लिये इच्छा कर ।। यदि तू ऊपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म करने के ही परायण हो, इस प्रकार मेरे अर्थ कर्माें को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा।। और यदि इसको भी करने के लिये असमर्थ है तो जीते हूए मनवाला और मेरी प्राप्ति रूप योग के शरण हुआ सब कर्मो के फलका मेरे लिये त्याग कर क्योकि मर्मको न जानकर किये हुए अभ्यास से परोक्षज्ञान श्रेष्ठ है और परोक्षज्ञान से मुझ परमेश्रवर के स्वरूपका ध्यान श्रेष्ठ है तथा त्यागसे तत्काल ही परम शान्ति होती है ।।
इस प्रकार शान्ति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालू है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित, सुख – दुःखोंकी प्राप्ति में सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है। तथा जो ध्यानयोग में युक्त हुआ, निरन्तर लाभ-हानिमें संतुष्ट है तथा मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए मेरे में दृढ़ निश्रय वाला है, वह मेरे में अर्पण किये मन-बुद्धिवाला मेरा मेरा भक्त मेरे को प्रिय है। जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता है और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता है तथा जो हर्ष, अमर्ष भय और उद्वेगादिकों से रहित है, वह भक्त मेरे को प्रिय है जो पुप्रिय है जो पुरुष आकाड्क्षासे रहित तथा बाहर-भीतर से शुद्ध और चतुर है अर्थात् जिस काम के लिये आया था, उसको पूरा कर चुका है, एवं पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है, वह सर्व आरम्भों का त्यागी अर्थात् मन, वाणी और शरीरद्वारा प्रारब्ध से होने वाले सम्पूर्ण स्वाभाविक कर्मों में कर्तापन के अभिमानका त्यागी मेरा भक्त मेरे को प्रिय है। जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोच करता हे, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फलका त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है। जो पुरुष शत्रु-मित्र मे और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी -गर्मी और सुख -दुःखादिक द्वन्द्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है। तथा जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है अर्थात् ईश्वर स्वरूपका निरन्तर मनन करने वाला है एवं जिस-किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है, वह स्थिर बुद्धि वाला भक्तिमान् पुरुष मेरे को प्रिय है। और जो मेरे परायण हुए अर्थात् मेरको परम आश्रय और पमर गति एवं सबका आत्मरूप और सबसे परे, मरमपूज्य समझकर विशुद्ध प्रेम से मेरी प्रािप्त के लिये तत्पर हुए श्रद्धायुक्त पुरुष इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘भक्तियोग’’ नामक बारहवाँ अध्याय।।

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