श्रीमद्भगवद्गीता के नवें अध्याय को “राजविद्या राजगुह्य योग” कहा जाता है, जिसका अर्थ है “सर्वोच्च ज्ञान और परम रहस्य का योग”। यह अध्याय गीता के सबसे महत्वपूर्ण और गूढ़ अध्यायों में से एक है क्योंकि इसमें भगवान श्रीकृष्ण भक्ति योग की महिमा बताते हैं और यह दर्शाते हैं कि वह स्वयं कैसे समस्त विश्व के कर्ता, धर्ता और भोक्ता हैं। (श्रीमद्भगवद्गीताके नवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Ninth Chapter Mahatmya)
महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! अब मैं आदपूर्वक नवम अध्याय के माहात्म्यका वर्णन करूँगा, तुम स्थिर होकर सुनो। नर्मदा के तटपर माहिष्मती नामकी एक नगरी है। वहाँ माधव नामक के एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेद-वेदाग के तत्तवज्ञ और समय-समय पर आनेवाले अतिथियों के प्रेमी थे। उन्होने विद्याके द्वारा बहुत धन कमाकर एक महान् यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया। उस यज्ञ में बलि देने के लिये एक बकार मँगाया गया। जब उसके शरीर को पूजा हो गयी, तब – ब्रह्मन् ! इन बहुत-से यज्ञों द्वारा कया लाभ है। इनका फल तो नष्ट हो जाने वाला है तथा ये जन्म, जरा और मृत्यु के भी कारण हैं। यह सब करने पर भी मेरी जो वर्तमान दशा है, इसे देख लो। बकरे के इस अत्यन्त कौतूहलजनक बचनको सुनकर यज्ञमण्डपमें रहने वाले सभी लोग बहुत ही विस्मित हुए। तब वे यजमान ब्राह्मण हाथ जोड़ अपलक नेत्रोंसे देखने हुए बकरे का प्रणाम करके श्रद्धा और आदर के साथ पूछने लगे।
ब्राह्मण बोले – आप किस जाति के थे? आपका स्वभाव और आचरण कैसा था? तथा किस कर्मसे आपको बकरे की योनि प्राप्त हुई ? यह सब मुझे बताइये।
बकरा बोला – ब्रह्मन् ! मैं पूर्वजन्म में ब्राह्मणों के अत्यन्त निर्मल कुल में उत्पन्न हुआ था समस्त यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला और वेद-विद्या में प्रवीण था। एक दिन मेरेी स्त्रीने भगवती दुर्गाकी भक्तिसे विनम्र होकर अपने बालक के रोग की शान्ति के लिये बलि देने के निमित्त मुझसे एक बकरा बाँगा। तत्पश्रात् जब चण्डिका के मन्दिर में वह बकरा मारा जाने लगा, उस सयम उसकी माता ने मुझे शाप दिया – ओ ब्राह्मणों में नीच, पापी! तू मेरे बच्चे का वध करना चाहता है; इसलिये तू भी बकरे की योनिमें जन्म लेगा। द्विजश्रेष्ठ ! तब कालवश मृत्यु को प्राप्त होकर मैं बकरा हुआ । यद्यपि मैं पशु-योनि में पड़ा हूँ, तो भी मुझे अपने पूर्वजन्मों का स्मरण बना हुआ है। ब्रह्मन् ! यदि आपको सुनने की उत्कण्ठा हो, तो मैं एक और भी आश्रर्यकी बात बताता हूँ। कुरूक्षेत्र नामका एक नगर है, जो मोक्ष प्रदान करने वाला है। वहाँ चन्द्रशर्मा नामक एक सूर्यवंशी राजा राज्य करते थे। एक समय जब कि सूर्यगा्रहण लगा था, राजा ने बड़ी श्रद्धा के साथ कालपूरूषका दान करने की तैयारी की। उन्होंने वेद-वेदागा के पारगामी एक विद्वान ब्राह्मणको बुलवाला और पुरोहित के साथ वे तीर्थ के पावन जलसे स्नान करने को चले। तीर्थ के पास पहुँचकर राजाने स्नान किया और दो वस्त्र धारण किये। फिर पवित्र एवं प्रसन्न चित होकर उन्होंने श्रेत चन्दन लगाया और बगल में खडे़ हुए पुरोहित का हाथ पकड़कर तत्कालोचित मनुष्यों से घिरे हुए अपने स्थनपर लौट आये। आने पर राजाने यथोचित विधि से भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को कालपुरूषका दान किया।
तब कालपुरूषका हृदय चीर कर उसमें से एक पापत्मा चाण्डाल प्रकट हुआ। फिर थोड़ी देरके बाद निन्दा भी चाण्डालीका रूप धारण करके कालपुरूषके शरीर से निकली और ब्राह्मणके पास आ गयी। इस प्रकार चाण्डालों की वह जोड़ी आँखे लाल किये निकली और ब्राह्मण के शरीर में हठात् प्रवेश करने लगी। ब्राह्मण मन-ही-मन गीता के नवम अध्यायका जप करते थे और राज चुपचाप यह सब कौतुक देखने लगे। ब्राह्मण के अन्तःकरण में भगवान् गोविन्द शयन करते थे। वे उन्हीं का ध्यान करने लगे। ब्राह्मण ने जब गीता के नवम अध्याय का जब करते हुए। अपने आश्रयभूत भगवान् का ध्यान किया, उस समय गीता के अक्षरों से प्रकट हुए विष्णुदूतों द्वारा पीड़ित होकर वे दोनों चाण्डाल भाग चले। उनका उद्योग निष्फल हो गया। इस प्रकार इस घटना को प्रत्यक्ष देखकर राजा के नेत्र आश्रर्य को चकित हो उठे। उन्होंने ब्राह्मण से पूछा- विप्रवर ! इस महाभयंकर आपप्ती को आपने कैसे पार किया? आप किस मन्त्रका जप तथा किस देवता का स्मरण कर रहे थे? वह पुरुष तथा वह स्त्री कौन थी? वे दोनों कैसे उपस्थित हुए? फिर वे शान्त कैसे हो गये? यह सब मुझे बतलाइये।
ब्राह्मणने कहा – राजन् ! चाण्डालका रूप धारण करके भयंकर पाप ही प्रकट हुआ था तथा वह स्त्री निन्दा की साक्षात् मूर्ति थीं मैं इन दोनों को ऐसा ही समझता हूँ। उस समय मैं गीता के नर्वे अध्याये के मन्त्रोंकी माला जपता था। उसीका माहात्म्य है कि सारा संकट दूर हो गया । महीपते! मैं नित्य ही गीता के नवम अध्याय का जप करता हूँ उसीके प्रभावसे प्रतिग्रहजनित आपप्तीयों के पार हो सका हूँ।
यह सुनकर राजाने उसी ब्राह्मण से गीता के नवम अध्याय का अभ्यास किया, फिर वे दोनो ही परमशान्ति (मोक्ष) – को प्राप्त हो गये।
(यह कथा सुनकर ब्राह्मणने बकरे को बन्धन से मुक्त कर दिया और गीता के नवें अध्याय के अभ्यास से परमगतिको प्राप्त किया। )
नवाँ अध्याय
उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! तुझ दोष-दृष्टिरहित भक्त के लिये इस परम गोपनीय ज्ञानको रहस्य के सहित कहूँगा कि जिसको जान कर तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जायगां यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा तथा सब गोपनीयों का भी राजा एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला और धर्मयुक्त है, साधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है। हे परंतप ! इस तत्वज्ञानरूप धर्ममें श्रद्धारहित पुरुष मेरे को न प्राप्त होकर मृत्यु रूप संसारचक्र में भ्रमण करते हैं। हे अर्जुन ! मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह सब जगत् जलसे बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्पक के आधार स्थिर हैं इसलिये वास्तव में मैं उनमे स्थिर नहीं हूँ और वे सब भूत मेरे मे स्थिर नहीं हैं, किंतु मेरी योगमाया और प्रभावको देख कि भूतों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वास्तव मे भूतों में स्थित नहीं है। क्योंकि जैसे आकाश से उत्पन्न हुआ, सर्वत्र विचने वाला महानृ वायु सदा ही आकाश में स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन वाले होने से सम्पूर्ण भूत मेरे में स्थित हैं, ऐसे जान ।।
हे अर्जुन ! कल्पके अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते है। अर्थात् प्रकृति में तय होते हैं और कल्प के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ। कैसे कि अपनी त्रिगुणमयी माया को अडीकर करके , स्वभाव के वश से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूतसमुदाया को बारम्बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ हे अर्जुन ! उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीन के सदृश स्थित हुए मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते हैं। हे अर्जुन ! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से यह मेरी माया चराचर- सहित सर्व जगत् को रचती है और इस ऊपर कहे हुए हेतु से ही यह संसार आवागमनरूप चक्र में घूमता है। ऐसा होने पर भी सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्रवर रूप मेरे परम भावको न जानने वाला मूढ़लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं अर्थात अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिये मनुष्यरूप में विचरते हुए को साधारण मनुष्य मानते है जो कि वृथा आशा, कर्म और वृथा जान वाले अज्ञानी जन राक्षसों के और असुरों के जैसे मोहत करने वाले तामसी स्वभावको ही धारण किये हुए हैं परंतु हे कुन्तीपुत्र ! दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन हैं, वे तो मेरे को सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्यमन से युक्त हुए निरन्तर भजते हैं । वे दृढ़ निश्रयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणें का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिये यन्त्र करते हुए और मेरेे को बारम्बार प्रणाम करते हुए, सदा मेरे ध्यान में युक्त हुए अनन्य भक्ति से मुझे उपासते हैं उनमें कोई तो मुझ विराट्स्वरूप परमात्मा को ज्ञानयज्ञ के द्वारा पूजन करते हूए एकतवभावसे अर्थात् जो कुछ है, सक वासुदेव ही है, इस भाव से उपसते हैं और दूसरे पृथक्त्वभावसे अर्थात् स्वामी-सेवक भावसे और कोई-कोई बहुत प्रकार से भी उपासते हैं।
क्योंकि क्रतु अर्थातृ श्रौतकर्म मैं हूँ, यज्ञ अर्थात् पश्रमहायज्ञादिक स्मार्तकर्म मैं हूँ, स्वधा अर्थातृ पितरों के निमित्त दिया जाने वाला अन्न मैं हूँ, ओषधि अर्थात् सब वनस्पतियाँ सब वनस्पतियाँ मैं हूँ, एवं मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्रि मैं हूँ, और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ। हे अर्जुन! मैं ही इस सम्पूर्ण जगत्का धाता अर्थातृ धारण-पोषण करनेवाला एवं कर्मो के फल को देने वाला तथा पिता, माता और पितमह हूँ और जानेयोग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। हे अर्जुन! प्राप्त होने योग्य तथा भरण -पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभका देखने वालाख् सबका वासस्थान और शरण लेने योग्य तथा प्रति-उपकार न चाहकर हित करनेवाला और उत्पन , प्रलयरूप तथा सबका आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ मैं ही सूर्यरूप हुआ तपता हूँ तथा वर्षो को आकर्षण करता हूँ और वर्षाता हूँ और हे अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु एवं सत् और असत् भी सब कुछ मैं ही हूँ।।
परंतु जो तीनो वेदों में विधान किये हुए सकाम कर्मो को करनेवाले और सोम रस को पीने वाले एवं पापों से पवित्र हुए पुरुष मेरे को यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति को चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप इन्द्रलोको प्राप्त होकर स्वर्ग मे दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं। वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं, इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों मे कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए और भोगों की कामना वाले पुरुष बारम्बार जाने आने को प्राप्त होते हैं अर्थात् पुण्य के प्रभावसे स्वर्ग मं जाते हैं और पुण्य क्षीण होने से मृत्यु लोक में आते हैं। जो अनन्य भावसे मेरे में स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्ररको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं उन नित्य एकीभावसे स्थिति वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ। हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धासे युक्त हुए जो सकामी भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मेरे को ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजना अविधिपूर्वक है अर्थातृ अज्ञान पूर्वक है। क्यांेकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परंतु वे मुझ अधियज्ञस्वरूप परमेश्रवर को तत्व से नहीं जानते हैं, इसीसे गिरते हैं अर्थातृ पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। कारण, यह नियम है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरेां को पूजने वाले पितरोंको प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होत हैं, इसीलिय मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता ।।
हे अर्जुन! मेरे पूजन में यह सुगमता भी है कि पत्र, पुष्प, फल, जल इत्यादि जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेम से अर्पण करता है, उस शुद्ध-बुद्धि, निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादिक मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँर। इसलिये हे अर्जुन तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता हैं, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है, जो कुछ स्वधर्माचरणरूप तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर इस प्रकार कर्मो का मेरे अर्पण करने रूप संन्यासयोग से युक्त हुए मनवाला तू शूभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त हुआ मेरे को ही प्राप्त होवेगा। यद्यपि मैं सब भूतों में समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मेरेको प्रेम से भजते हैं, वे मेरे में और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँं मेरी भक्तिका और भी प्रभाव सुन, यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त हुआ मेरे को निरन्तर भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्रयवाला है अर्थातृ उसने भली प्रकार निश्रय कर लिया है कि परमेश्रवर भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है इसलिये वह शीध्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परमशान्तिको प्राप्त होता है, हे अर्जुन! तू निश्रयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता क्योंकि हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य और शूद्रादिक तथा पापयोनिवाले भी जो कोई होवें वे भी मेरे शरण होकर तो परमगतिको ही प्राप्त होते हैं। फिर क्या कहना है कि पुण्यशील ब्राह्मणजन तथा राजर्षि भक्तजन परमगतिको प्राप्त होते हैं, इसलिये तू सुखरहित और क्षणभगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर अर्थातृ मनुष्य-शरीर बड़ा दूर्लभ है, परंतु है नाशवनृ और सुखरहित, इसलिये कालका भरोसा न करके तथा अज्ञान से सुखरूप भासने वाले विषय – भोगों में न फँसकर निरन्तर मेरा ही भजन कर ।। केवल मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्यप्रेम से नित्य, निरन्तर अचल मनवाला हो और मुझ परमेश्रवर को ही श्रद्धा-प्रेमसहित, निष्कामभावसे नाम, गुण और प्रभावसके श्रवण, कीर्तन, मनन और पठन-पाठनद्वारा निरन्तर भजने वाला हो तथा मुझ शख्ड, चक्र, गदा, पद्य और किरीट, कुण्डल आदि भूषणो से युक्त पीताम्बर, वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका मन, वाणी और शरीरके द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विहृलतापूर्वक पूजन करने वाला हो और मुझ सर्वशक्तिमान्, विभूति, बल, ऐश्रवय, माधुर्य गम्भीरता , उदारता, वाल्सल्य और सुहृदता आदि गुणें से सम्पन्न सबके आश्रयरूप वासुदेव को विनयभावपूर्वक, भक्तिसहित, साष्टाग् दण्डवतृ प्रणाम कर, इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्माको मेरे में एकीभाव करके मेरे को ही प्राप्त होवेगा।।
इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘राजविद्याराजगुहृायोग’’ नामक नवाँ अध्याय।।
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