मंगलवार, जुलाई 8, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके आठवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Eighth Chapter Mahatmya

भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में “अक्षर-ब्रह्म योग” का उपदेश दिया है। इस अध्याय में परब्रह्म, आधिदैविक, आधिभौतिक, और आध्यात्मिक ज्ञान, तथा अंत समय में भगवान का स्मरण करने का महत्व बताया गया है। (श्रीमद्भगवद्गीताके आठवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Eighth Chapter Mahatmya)

भगवान् शिव कहते हैं- देवि ! अब आठवें अध्यायका माहात्म्य सुनो! उसके सुनने से तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी। (लक्ष्मीजी के पूछनेपर भगवान् विष्णुने उन्हें इस प्रकार अष्टम अध्यायका माहात्म्य बतलाया था।) इक्षिण में आमर्दकपूर नामक एक प्रसिद्ध नगर है। वहाँ भावषर्मा नामक रहता था, जिसने वेश्याको पत्नी बनाकर रखा था। वह मांस खाता, मदिरा पीता, श्रेष्ठ पुरुषों का धन चुराता, परायी स्त्री से व्यभिचार करता और शिकार खेलने में दिलचस्पी रखता थां वह बड़े भयानक स्वाभवका था और जुटा था और मनमें बडे-बड़े हौसले रखता था। एक दिन मदिरा पीनेवालोंका समाज जुटा था। उसमें भावशर्माने भरपेट ताड़ी पी- खूब गलेतक उसे चढ़ाया; अतः अजीर्ण से अत्यन्त पीड़ित होकर वह पापात्मा कालवश मर गया और बहुत बड़ा ताड़का वृक्ष हुआ। उनकी घनी और ठंडी छायाकी आश्रय होकर ब्रह्मराक्षस-भावको प्राप्त हुए कोई पति-पत्नी वहाँ रहा करते थे।
उनके पूर्वजन्म की घटना इस प्रकार हरै। एक कुशीबल नामक ब्राह्मण था, जो वेद -बेदाडग् के तत्वों का ज्ञाना, सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थका विशेषज्ञ और सदाचारी था। उवकी स्त्रीका नाम कुमति था। वह बड़े खोटे विचारकी थी। वह ब्राह्मण विद्वान होनेपर भी अत्यन्त लोभवश अपनी स्त्री के साथ प्रतिदिन भैंस, कालपुरुष और घोड़े आदि बडे दानों को ग्रहण किया करता था; परंतु दूसरे ब्राह्मणों को दानमें मिली हुई कौड़ी भी नहीं देता था। वे ही दोनों पति-पत्नी कालवश मृत्युको प्राप्त होकर ब्रह्मराक्षस हुए। वे भूख और प्याससे पीड़ित हो इस पृथ्वीपर घुमते हुए उसी ताड़वृक्ष के पास आये और उसके मूल भागमें विश्राम करने लगे। इसके बाद पत्नी पति से पूछा- नाथ! हमलोंगों का यह महान् दुःख कैसे दूर होगा तािा इस ब्रह्मराक्षस -योनिसे किस प्रकार हम दोनों का मुक्ति होगी? तब उस ब्राह्मणने कहा – ब्रह्मविद्या के उपदेश , अध्यात्म तत्व के विचार और कर्मविधि के ज्ञान बिना किस प्रकार संकटसे छुटकारा मिल सकता है।
यह सूनकर पत्नी ने पूछा- किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम||

पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन-सा है?) उसकी पत्नी के इनता कहते ही जो आश्रर्यकी घटना घटित हुई, उसको सुनो। उपर्युक्त वाक्य गीता के आठवे अध्यायका आधा श्लोक था। उसके श्रवण से वह वृक्ष उस समय ताड़के रूपको त्यागकर भावशर्मा नामक ब्राह्मण हो गया। तत्काल ज्ञान होने से विशुद्ध-चित्त होकर वह पापके चोलेसे मुक्त हो गया। तथा उस आधे श्लोकके ही माहात्म्यसे वे पति-पत्नी भी मुक्त हो गयें उनके मुखसे दैवात् ही आठवें अध्यायका आधा श्लोक निकल पड़ा था । तदनन्तर आकाश से एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति-पत्नी उस विमान पर आरूढ़ होकर स्वर्गलोकका चले गये। वहाँ का यह सारा वृत्तन्त अत्यन्त आश्रर्यजनक था।
उसके बाद उस बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्माने आदरपूर्वक उस आधे श्लोक को लिखा और देवदेव जनार्दनकी आराधना करने की इन्छा से वह मुक्तिदायिनी काशीपुरी में चला गया। वहाँ उस उदार बुद्धिवाले ब्राह्मणने भारी तपस्या आरम्भ की। उसी समय क्षीरसागरकी कन्या भगवती लक्ष्मीने हाथ जाड़कर देवताओं के भी देवता जगत्पति जनार्दनसे पूछज्ञ- नाथ! सहसा नींद त्यागकर खड़े क्यो हो गये?

श्रीभगवानृ बोले – देवि! काशीपुरी में भागीरथी के तटपर बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्मा मेरे भक्तिरस से परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है। वह अपनी इन्द्रियों को वश में करके गीता के आठवें अध्याय के आधे श्लोक का जप करता है। मैं उसकी तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ। बहुत देरसे उसकी तपस्या के अनुरूप फलका विचार कर रहा था। प्रिये ! इस समय वह फल देने को मैं उत्काण्ठित हूँ।

पार्वती जी ने पूछा – भगवान! श्रीहरि सदा प्रसन्न होने पर भी जिसके लिये चिन्तित हो उठे थे, उस भगवद्धक्त भावशर्माने कौन-सा फल प्राप्त किया?

श्रीमहादेवजी बोले- देवि! द्विजश्रेष्ठ भावशर्मा प्रसन्न हुए भगवान! विष्णु के प्रसादको पाकर आत्यन्तिक सुख (मोक्ष) -को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी, जो नरक-यातनामें पडे थे, उसीके शुद्धकर्मसे भगवद्धामको प्राप्त हुए । पार्वती यह आठवें अध्यायका माहात्म्य थोड़ेमें ही तुम्हें बताया है। इसपर सदा विचार करते रहना चाहियें।

आठवाँ अध्याय


इस प्रकार भगवान् के वचनों को न समझकर अर्जुन बोले, हे पुरुषोत्तम! जिसका आपने वर्णन किया वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है और अधिभूत नामसे क्या कहा गया है? अधिदैव नामसे क्या कहा जाता है हे मधुसूदन ! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? और युक्त चितवाले पुरुषोंद्वारा अन्त समय में आप किस प्रकार जानने में आते हो इस प्रकार अर्जुन के प्रश्न करने पर श्री कृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन! परम अक्षर अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं हो, ऐसा सच्चिदानन्दघन परमात्मा तो ब्रह्म है और अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा अध्यात्म नामसे कहा जाता है तथा भूतों के भावको उत्पन्न करने वाला शास्त्रविहित यज्ञ, दान और होम आदिके निमित्त जो द्रव्यादिकों का त्याग है, वह कर्म नाम से कहा गया है उत्पति, विनाश धर्मवाले सब पदार्थ अधिभूत हैं और हिरण्यमय पुरुष अधिदैव है और हे देहधारियो में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीर में वासुदेव ही विष्णुरूप से अधियज्ञ हूँ। और जो पुरुष अन्तकालमें मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षातृ स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। कारण कि हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागता है, उस-’उसको ही प्राप्त होता है; परंतु सदा उस ही भाव को चिन्तन करता हुआ, क्योकि सदा जिस भावका चिन्तन करता है, अन्तकाल में भी प्रायः उसीका स्मरण होता है इसलिये हे अर्जुन! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इस प्रकार मेरे में अर्पण किये हुए मन, बुद्धिसे युक्त हुआ, निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा।

हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्रवर ध्यान के अभ्यासरूप योगसे युक्त, अन्य तरफ न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ पुरुष परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुषों को अर्थात् परमेश्रवर को ही प्राप्त होता हैं। इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता, सूक्ष्मससे भी अति सूक्ष्म सबके धारण-पोषण करने वाले अचिन्त्यस्व्रूप, सूर्य के सदृश, नित्य चेतन प्रकाशरूप, अविद्यासे अतिपरे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमात्माको स्मरण करता है। वह भक्तियुक्त पुरुष अन्तकाल में भी योगबलसे भृकुटीके मघ्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके फिर निश्रल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यस्वरूप परमपुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता हैं। हे अर्जुन वेदके जानने वाले विद्वानृ जिस सच्चिदानन्दघनरूप परमपदको ओंकार नामसे कहते हैं ओर आसक्ति-रहित यत्त्रशील महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं तथा जिस परमपदको चाहने वाले ब्रह्मचर्यका आचरण करते हैं, उस परमपदको तेरे लिये संक्षेप से कहूँगां हे अर्जुन! सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात् इन्द्रियो को विषयों से हटाकर तथा मनको हृदय में स्थिर करके और अपने प्राणको मस्तक में स्थापन करके योगधारणा में स्थित हुआ। जो पुरुष ओम् ऐसे इस एक अक्षररूप ब्रह्मको उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मेरे को चिन्तन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परमगतिकेा प्राप्त होता है हे अर्जुन! जो पुरुष मेरे में अनन्यचित्त से स्थित हुआ, सा ही निरन्तर मेरे को स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरे में युक्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ वे परम सिद्धि को प्राप्त हुए महाम्माजन मेरे को प्राप्त होकर दुःखके स्थानरूप क्षणभगुर पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होते हैं। क्योंकि हे अर्जुन! ब्रह्मलोकसे लेकर सब लोक पुनरावर्ती स्वभाववाले अर्थात् जिनको प्राप्त होकर पीछा संसार में आना पड़े ऐसे है, परंतु हे कुन्ती पुत्र ! मेरेको प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है; क्योंकि मैं कालातीत हूँ और यह सब ब्रह्मदिकों के लोक काल करके अवधिवाले होने से अनित्य हैं।।

हे अर्जुन! ब्रह्माका जो एक दिन है, उसको हजार चौकड़ी युगतक अवधिवाला और रात्रिको भी हजार चौकड़ी युगतक अवधिवाला जो पुरुष तŸवसे जानते हैं, अर्थात् काल करके अवधिवाला होने से ब्रह्मलोंक को भी अनित्य जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्वको जानने वाले हैं। इसलिये वे यह भी जानते हैं कि सम्पूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्माके दिनके प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात् सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माकी रात्रि के प्रवेश काल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्माके सूक्ष्म शरीर में ही लय होते हैं। वह ही यह भूतसमुदाय उत्पन हो-होकर, प्रकृति के वश में हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लय प्रकार ब्रह्मा के एक सौ वर्ष पूर्ण होने से लोकसहित ब्रह्मा भी शान्त हो जाता है। परंतु उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात् विलक्षण जो सनातन अव्यक्तभाव है, वह सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा, सब भूतों के नष्ट होने पर भी नहीं नष्ट होता है। जो वह अव्यक्त कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्तभावको प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहंी आते है।, वह मेरा परम धाम है। और हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह सक जगतृ परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परमपुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है।
और हे अर्जुन! जिस काल में शरीर त्यागकर गये हुए योगीजन पीछा न आनेवाली गतिको और पीछा आनेवाली गतिको भी प्राप्त होते है।, उस कालको अर्थात् मार्गको कहूँगा। उन दो प्रकार के मार्गोंमें से जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्रि अभिमानी देवता है और दिनका अभिमानी देवता है तथा शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग से मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्त अर्थात् परमेश्रवर की उपासना से परमेश्रवर को परोक्ष भाव से जानने वाले योगी जन उपरोक्त देवताओं द्वारा क्रमसे ले गये हुए ब्रह्म को प्राप्त हुए हैं। जिस मार्ग में धूमभिमानी देवता है और रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्णपक्षका अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपरोक्त देवताओ द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर पीछा आता है। क्योकि जगत् के यह दो प्रकार के शुक्ल और कृष्ण अर्थात् देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गये हैं, इनमें एकके द्वारा गया हुआ पीछा न आनेवाली परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे द्वारा गया हुआ पीछा आता है अर्थातृ जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।। हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनो मार्गाे को तŸवसे जानता हुआ कोई भी योगी मोहित नहीं होता है अर्थात् फिर वह निष्कामभावसे ही साधन करता है, कामनाओं में नहीं फँसता, इस कारण कारण हे अर्जुन! तू सब काल में समत्वबुद्धिरूप योगसे युक्त हो अर्थात् निरन्तर मेरी प्राप्ति के लिये साधन करने वाला हो क्योंकि योगी पुरुष इस रहस्य को तत्व से जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ, तप और उनादिकोंके करने में जो पुण्यफल कहा है, उस सबको निःसंन्देह उल्डन्न कर जाता है और सनातन परमपदको प्राप्त होता है।।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘अक्षरब्रह्मयोग’’ नामक आठवाँ अध्याय।।

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