मंगलवार, जुलाई 8, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य || Srimad bhagavad Gita Sixth Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय को “आत्मसंयम योग” कहा जाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने ध्यान योग, योगी के लक्षण, तथा आत्म-संयम की महिमा का विस्तार से वर्णन किया है। इस अध्याय का माहात्म्य सुनने और इसके अर्थ को समझने से साधक को मानसिक शांति, आत्मबोध, और मोक्ष प्राप्ति में सहायता मिलती है। (श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य || Srimad bhagavad Gita Sixth Chapter Mahatmya)

श्रीभगवान् कहते हैं- सुमुखि ! अब मैं छठे अध्यायका माहात्मय बतलाता हूँ, जिसे सुनने वाले मनुष्यों के लिये मुक्ति करतलगत हो जाती है। गोदवारी नदी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) नामक एक विशाल नगर है, जहाँ मैं पिप्पलेशके नामके विख्यात होकर रहता हूँ। उस नगरमें जानश्रुति नामक एक राजा रहते थे, जो भूमण्डलकी प्रजाको अत्यन्त प्रिय थे। उनका प्रताप मार्तण्ड-मण्डलके प्रचण्ड तेजके समान जान पड़ता था। प्रतिदिन होनेवाले उनके यज्ञके धुएँसे नन्दनवन के कल्पवृक्ष इस प्रकार काले पड़ गये थे, मानो राजाकी असाधरण दानशीलता देखकर वे लज्जित हो गये हों। उनके यज्ञ में प्राप्त पुरोडाशके रसास्वादन में सदा आसक्त होने के कारण देवतालोग कभी प्रतिष्ठानपुरको छोड़कर बाहर नहीं जाते थे। उनके दान के समय छोड़े हुए जलकी धारा, प्रतापरूपी तेज और यज्ञके धूमोंसे पुष्ट होकर मेघ ठीक समयपर वर्षा करते थे। उस राजाके शासनकालमें ईतियों (खेतीमें होनेवाले छः प्रकारके उपद्रवों) के लिये कहीं थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता था और अच्छी नीतियों का सर्वत्र प्रसार होता था। वे बावली, कुएँ और पोखरे खुदवाने के बहाने मानो प्रतिदिन पृथ्वीके भीतर के भीतर की निधियों का अवलोकन करते थे। एक समय राजाके दान, तप, यज्ञ और प्रजापालन से संतुष्ट होकर स्वर्ग के देवता उन्हें वर देने के लिये आयें वे कमलनाल के समान उज्ज्वल हंसोंका रूप धारणकर अपनी पाँखें हिलाते हुए आकशमार्ग से चलने लगे। बड़ी उतावली के साथ उड़ते हुए वे सभी हंस परस्पर बातचीत भी करते जाते थे। उनमें से भद्राश्र आदि दो तीन हंस वेगसे उड़कर आगे निकल गये। तब पीछेवाले हंसोंने आग जानेवालों को सम्बोधित करके कहा – अरे भाई भद्राश्र ! तुमलोग वेगसे चलकर आगे क्यों हो गये? यह मार्ग बड़ा दुर्गम है; इसमें हम सबकों साथ मिलकर चलतना चाहिये। क्या तुम्हे दिखायी नहीं देता, यह सामने ही पुण्यमूर्ति महाराज जानश्रुतिका तेजःपुज्ज अत्यन्त स्पष्टरूपसे प्रकाशमान हो रहा हैं (उस तेजसे भस्म होने की आश्ंाका है, अतः सावधान होकर चलना चाहिये।)
पीछेवाले हंसों के ये वचन सुनकर आगेवाले हंस हँस पड़े और उच्च स्वर से उनकी बातों की अवहेलना करते हुए बोले – अरे भाई! क्या इस राजा जानश्रुतिका तेज ब्रह्मवादी महात्मा रैक के तेजस भी अधिक तीव्र है?
हंसों की ये बातें सुनकर राजा जानश्रुति अपने ऊँचे महलकी छतसे उतर गये और सुखपूर्वक आसन विराजमान हो अपने सारथिको बुलाकर बोले- जाओं, महात्मा रैक को यहाँ ले लाओं। राजाका यह अमृतके समान वचन सुनकर मह नामक सारथि प्रसन्नता प्रकट करता हुआ नगर से बाहर निकला। सबसे पहले उसने मुक्तिदायिनी काशीपुरी की यात्रा की, जहाँ जगत् के स्वामी भगवान् विश्वनाथ मनुष्यों को उपदेश दिया करते हैं। उसके बाद वह गया क्षेत्र में पहुँचा, जहाँ प्रफुल्ल नेत्रोंवाले भगवान गदाधर सम्पूर्ण लोकों का उद्धार करने के लिये निवास करते है। तदनन्तर नाना तीर्थीं में भ्रमण करता हुआ सारभि पापनाशिनी मथुरापुरी में गया; यह भगवान श्रीकृण्ण का आदि स्थान है, जो परम महान् एवं मोक्ष प्रदान करने वाला है। वेद और शास्त्रों में वह तीर्थ त्रिभूवनपति भगवान् गोविन्द के अवतारस्थान के नाम से प्रसिद्ध है। नान देवता और ब्रह्मर्षि उसका सेवन करते हैं मथुरा नगर कालिन्दी (यमुना)- के किनारे शोभा पाता है। उसकी आकृति अर्द्धचन्द्र के समान प्रतीत होती है। वह सब तीर्थों के निवास से परिपूर्ण है। परम आनन्द प्रदान करने के कारण सुन्दर प्रतीत होता हैं गोवर्धन पर्वत के होने से मथुरामण्डलकी शोभा और बढ़ गयी हैं। वह पवित्र वृक्षो और लताओं से आवृत है। उसमें बारह वन है। वह परम पुण्यमय तथा सबकों विश्राम देनेवाले श्रुतियों के सारभूत भगवान् श्रीकृष्ण की आधारभूमि है।

तत्पश्चात मथुरासे पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर बहुत दूरतक जाने पर सारथि को काश्मी रनामक नगर दिखायी दिया, जहाँ शंख के समान उज्ज्वल गगनचुम्बी महलों की पंक्तियाँ भगवान् शडक्र के अह्नहासकी भाँति शोभा पाती हैं। जहाँ ब्राह्मणों के उच्चारण करते हुए देवता के समान हो जाते हैं। जहाँ निरन्तर होने वाले यज्ञ-धूमसे व्याप्त होने के कारण आकश-मंण्डल मेघों से धुलते रहने पर भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ता। जहाँ उपाध्याय के पास आकर छात्र जन्मकालीन अभ्यास से ही सम्पूर्ण कलाएँ स्वतः पढ़ लेते है। तथा जहाँ माणिके श्रवर नामसे प्रसिद्ध भगवान् चन्द्रशेखर देहधारियों को वरदान देने के लिये नित्य निवास करते है। काश्मीर के राजा माणिक्येशने दिग्विजय में समस्त राजाओं को जीतकर भगवान् शिवका पूजन किया था, तभी से उनका नाम माणिक्येश्वर हो गया था। उन्हीं के मन्दिर के दरवाजेपर महात्मा रेक एक छोटी-सी गाड़ीपर बैठे अपने अंगो को खुजलाते हुए वृक्ष की छाया का सेवन कर रहे थे। इसी अवस्थामें सारथि ने उन्हें देखा। राजाके बताये हुए भिन्न-भिन्न चिन्हों उसने शीध्र ही रैक को पहचान लिया और उनके चरणों में प्रणाम करके कहा – ब्रह्मन्! आप किस स्थान पर रहते है? आपका पूरा नाम क्या है? आप तो सदा स्वच्छन्द विचरने वाले हैं, फिर यहाँ किस लिये ठहरे है? इस समय आपका क्या करने का विचार है?

सारथि के ये वचन सुनकर परम आनन्द में निमग्र महात्मा रैक ने कुछ सोचकर उससे कहा- ‘यद्यपि इम पूर्णकाम हैं हमें किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है, तथापि कोई भी हमारी मनोवृति के अनुसार परिचर्या कर सकता हैं रैक के हार्दिक अभिप्रासय को आरपूर्वक ग्रहण करके सारथि धीरे से राजाके पास चल दिया। वहाँ पहुँचकर राजा को प्रणाम करके उसने हाथ जोड़ सारा समाचार निवेदन किया। उस समय स्वामी के दर्शन से उसके मन में बड़ी प्रसन्नता थी। सारथि के वचन सुनकर राजाके नेत्र आश्य से चकित हो उठे। उनके हृदय में रैक का सत्कार करने की यात्रा की। साथ ही मोती के हार, अच्छे-अच्छे वस्त्र और एक सहस्त्र गोएँ भी ले ली। काश्मीर-मण्डल में महात्मा रैक जहाँ रहते थे उस स्थानपर पहुँचकर राजाने सारी वस्तुएँ उनके आगे निवेदन कर दीं और पृथ्वीपर पड़कर साष्टाग प्रणाम किया। महात्मा रैक अत्यन्त भक्ति के साथ चरणों में पड़े हुए राजा जानश्रुतिपर कुपित हो उठे और बोले – रे शूद्र तू दुष्ट राजा है। क्या तू मेरा वृत्तन्त नहीं जानता? यह खच्चारियों से जुती हुई अपनी ऊँची गाड़ी ले जा। ये वस्त्र, ये मोतियों के हार और ये दूध देनेवाली गौएँ भी स्वयं ही ले जा। इस तरह आज्ञा देकर रैकने राजाके मनमें भय उत्पन कर दिया। तब राजाने शापने भयसे महात्मा रैक के दोनों चरण पकड़ लिये और भक्तिपूर्वक कहा- ब्रह्मन्! मुझपर प्रसन्न होइये। भगवानृ आपमें यह अद्धुत माहात्म्य कैसे आया? प्रसन्न होकर मुझे ठीक-ठीक बताइये।

रैकने कहा- राजन् मैं प्रतिदिन गाीता के छठे अध्याया का जप करता हूँ, इसीसे मेरी तेजोराशि देवताओं के लिये भी दुःसह है।
तदनन्तर परम बुद्धिमानृ राजा जानश्रुतिने यन्त्रपूर्वक महात्मा रैक से गीता के छठे अध्यायका अभ्यास किया। इससे उन्हें मोक्षकी प्राप्ति हुई। इधर रैक भी भगवानृ माणिक्येश्रवर के समीप मोक्षदायक गीता के छठे अध्यायका जप करते हुए सुख से रहने लगे। हंसका रूप धारण करके वरदान देने के लिये आये हुए देवता भी विस्मित होकर स्वेच्छानुसार चले गये। जो मनुष्य सदा इस एक ही अध्यायका जप करता है, वह भी भगवन् विष्णुके ही स्वरूपको प्राप्त होता है- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

छठा अध्याय

उसके उपरान्त श्रीकृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन! जो पुरुष कर्म के फलको न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है वह संन्यासी और योगी है और केवल अग्रिको त्यागने वाला संन्यासी, योगी नहीं है, तथा केवल क्रियाओं को त्यागनेवाला भी संन्यासी, योगी नहीं है। इसलिय हे अर्जुन! जिसको संन्यास ऐसा कहते है उसीको तू येाग जान, क्योंकि संकल्पों को न त्यागनेवाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता समत्व-बुद्धिरूप योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुषके लिये योग की प्राप्ति में निष्कामभावसे कर्म करना ही हेतु कहा है और योगरूढ़ हो जानेपर उस योगारूढ़ पुरुष के लिये सर्वसंकल्पों का अभाव ही कल्याणमें हेतु है। जिस कालमें न तो इन्द्रियों के भोगोंमें आसक्त होता है तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस कालमें सर्वसंलपों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।

यह योगरूढ़ता कल्याणमें हेतु कही है, इसलिये मनुष्यको चाहिये कि अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने आत्मा को अधोगति में च पहुँचावे, क्योंकि यह जीवात्मा आप ही तो अपना मित्र नहीं और आप ही अपना शत्रु है अर्थात् और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है। उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है कि जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसके द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है उसका वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।

हे अर्जुन!
सर्दी, गर्मी और सुख, दुःखादिकों में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्त याँ अच्छी प्रकार शान्त हैं, अर्थात् विकाररहित हैं ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है, अर्थात् उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है अन्तःकरण जिसका तथा विकाररहित है स्थिति जिसकी और अच्छी प्रकार जीती हुई हैं इन्द्रियाँ जिसकी तथा समान है मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण जिसके, वह योगी युक्त अर्थात् भगवत् की प्राप्ति वाला है, ऐसे कहा जता है। जो पुरूष सुहद् मित्र वैरी, उदासीन मध्यस्थ द्वेषी और बन्धुगणों में तथा धर्मात्माओं और पापियों में भी समान भाववाला है वह अति श्रेष्ठ है इसलिये उचित है कि जिसका मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, ऐसा वासनारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकान्त स्थान में स्थित हुआ निरन्तर आत्मा को परमेश्रवर ध्यान में लगावे।।
शुद्ध भूमि में कुशा, मृगछाला और वस्त्र हैं उपरोपरि जिसके ऐसे अपने आसनको न अति ऊँचा और न अति नीचा स्थिर स्थापन करके।। और उस आसनपर बैठकर तथा मनको एकाग्र करके चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में किया हुआ अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योगका अभ्यास करे। उसकी विधि इस प्रकार है कि काया, सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किये हुए दृढ़ होकर अपनी नासिका के अग्रभाग को देखकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।। ओर ब्रह्मचर्य के व्रत के स्थित रहता हुआ भयरहित तथा अच्छी प्रकार शान्त अन्तःकरण वाला और सावधान होकर मनको वश में करके, मेरे में लगे हुए चित्तवाला और मेरे परायण हुआ स्थित होवे इस प्रकार आत्मा को निरन्तर परमेश्ररके स्वरूपमें लगाता हुआ स्वाधीन मनवाला योगी मेरे में स्थितिरूप परमानन्द पराकाष्ठावाली शान्तिको प्राप्त होता है। परंतु हे अर्जुन यह योग न तो बहुत खानेवाले का सिद्ध होता है और न बिलकुल न खानेवाले का तथा न अति शयन करने के स्वभाव वाले का और न अत्यन्त जागने वाले का ही सिद्ध होता है। यह दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार और बिहार करने वाले का तथा कर्मों में यथा योग्य चेष्टा करने वाले का और यथा योग्य शयन करने तथा जागने वाला ही सिद्ध होता है।
इस प्रकार योग के अभ्यास से अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भली प्रकार स्थित हो जाता है उस कालमें सम्पूर्ण कामनाओं से स्पृहारहित हुआ पुरुष योगयुक्त ऐसा कहा जात है जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता है, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यानमें लगें हुए योगी के जीते हुए चित की कही गयी है।

हे अर्जुन! जिस अवस्थामें येाग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त उपराम हो जात है और जिस अवस्थामें परमेश्रवर के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा परमात्माको साक्षात् करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही संतुष्ट होता है। तथा इन्द्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है उसको जिस अवस्था में अनुभव करता हैं और जिस अवस्था में स्थित हुआ यह योगी भगवत्स्वरूप से नहीं चलायमान होता है और परमेश्रवर की प्राप्ति जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है और भगवत्-प्राप्ति रूप जिस अवस्था मेें स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता है। जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिये, वह योग न उकताये हुए चित्त से अर्थात् तत्पर हुए चित्त से निश्रय पूर्वक करना कर्तव्य है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेषतासे अर्थात् वासना और आसक्ति सहित त्याग कर और मनके द्वारा इन्द्रियों के समुदायाको सब ओरसे ही अच्छी प्रकार वशमें करके । क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरामताको प्राप्त होवे तथा धैर्ययुक्त बुद्धिद्वारा मनको परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे। परंतु जिसका मन वश में नहीं हुआ हो उसको चाहिये कि यह स्थिर न रहनेवाला और चन्चल मन जिस-जिस कारण से सांसारिक पदार्थों मं विचरता है उस-उस से रोककर बारम्बार परमात्मा में ही निरोध करे । क्योंकि जिसका मन अच्छी प्रकार शान्त है और जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके साथ एकीभाव हुए योगी को अति उत्तम आनन्द प्राप्त होता है वह पापरहित योगी इस प्रकार निरन्तर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की अनन्त आनन्द को अनुभव करता है।। हे अर्जुन! सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थितिरूप योगसे युक्त हुए आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतों में बर्फ में जलके सदृश व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है अर्थात् जैसे स्वप्न से जगा हुआ पुरुष स्वप्न के संसारको अपने अन्तर्गत संकल्प के आधार देखता है, वैसे ही वह पुरुष सम्पूर्ण भतों को अपने सर्वव्यापी अनन्त चेतन आत्मा के अन्तर्गत संकल्प के आधार देखता हैं। जो पुरुष सम्पूर्ण सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता हैं, क्योंकि वह मेरे में एकीभाव से स्थित है। इस प्रकार जो पुरुष एकीभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बर्तता हुआ भी मेरे में ही बर्तता है, क्योंकि उसके अनुभव में मेरे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं । हें अर्जुन जो योगी अपनी सादृश्यता से सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परमश्रेष्ठ माना गया है।।
इस प्रकार भगवान् के वाक्यों को सुनकर अर्जुन बोले, हे मधुसूदन जो यह ध्यानयोग आपने समत्वभावसे कहा है, इसकी मैं मनके चन्चल होनेे से कालतक ठहरने वाली स्थिति को नहीं देखता हूँ।। क्योंकि हे कृष्ण यह मन बड़ा चन्चल और प्रमथन स्वभाववाला है तथा बड़ा दृढ़ और बलवान् है इसलिये इसका वशमें करना मैं वायु की भाँति अति दुष्कर मानता हूँ ।। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले, हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चन्चल और कठिनतासे वश में होने वाला है, परंतु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास अर्थातृ स्थिति के लिये बारम्बार यत्र करने से वैराग्य से वश में होता है, इसलिये इसको अवश्य वश में करना चाहिये। क्योंकि मनको वश में न करने वाले पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है अर्थातृ प्राप्त होता कठिन है और स्वाधीन मनवाले प्रयत्न शील पुरुष द्वारा साधन करने से प्राप्त होना सहज है, यह मेरा मत है।।
इसपर अर्जुन बोले, हे कृष्ण ! योग से चलायमान हो गया है मन जिसका, ऐसा शिथिल यत्रा वाला श्रद्धायुक्त पुरुष योग की सिद्धि को अर्थातृ भगवत्- साक्षात्कारता को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है। हे महाबाहों! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ आश्रयरहित पुरुष छित्र-भित्र बादलकी भाँति दोनों ओर से अर्थात् भगवत्प्राप्ति और सांसारिक भोगों से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है? हे कृष्णा ! मेरे इस संशयको सम्पूर्णता से छेदन करने के लिये आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशयका छेदन करने वाला मिलना सम्भव नहीं है।
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले, हे पार्थ! उस पुरुषका न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है, क्योकि हे प्यारे कोई भी शुभकर्म करने वाला अर्थात् भगवत्-अर्थ कर्म करने वाला दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता ।। किंनु वह योग भ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों अर्थात् स्वर्गादिक उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षाे तक वास करके शुद्ध आचरण वाले श्रीमान् पुरुषों के घरमें जन्म लेता है। अथवा वैराग्यवानृ पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवानृ योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परंतु इस प्रकारका जो यह जन्म है, सो संसार में निःसंदेह अति दुर्लभ है। वह पुरुष वहाँ उस पहिये शरीर में साधन किये हुए बुद्धि कें संयेाग को अर्थात् सम्त्वबुद्धि योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभावसे फिर अच्छी प्रकार भगवत्प्राप्ति क निमित्त यत्र करता है। वह विषयोें के वश में हुआ भी उस पहिये के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवत् की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समतवबुद्धिरूप योग का जिज्ञासु भी वेदमें कहे हुए सकाम कर्मों के फलको उल्घन कर जाता है जब कि इस प्रकार मन्द प्रयन्त करने वाला योगी भी परमगतिको प्राप्त हो जाता है, तब क्या कहना है कि अनेक जन्मों से अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ और अति प्रयन्त से अभ्यास करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से अच्छी प्रकार शुद्ध होकर, उस साधन के प्रभावसे परमगतिको प्राप्त होता है, अर्थात् परमात्मा को प्राप्त होता है क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और शास्त्र के ज्ञानवालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा सकाम कर्म करने वालों में भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन! तू योगी हो हे प्यारे! सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावानृ येागी मेरेमें लगे हुए अन्तरात्मा से मेरे को निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परमश्रेष्ठ मान्य है।।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘आत्मसंयमयोग’’ नामक छठा अध्याय।। 

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