मंगलवार, जुलाई 8, 2025
होमश्रीमद्भगवद्गीताश्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Fifth Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita Fifth Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रत्येक अध्याय अपने आप में अत्यंत दिव्य और कल्याणकारी है। पंचम अध्याय को कर्मसंन्यास योग कहा जाता है, जो कर्मयोग और संन्यास की महिमा को उजागर करता है। इस अध्याय के माहात्म्य को जानने से इसके पाठ का अधिक लाभ प्राप्त होता है।

श्रीभगवान् कहते हैं- देवि! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप से बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद्रदेश में पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर हे। उसमें पिडग्ल नामक एक ब्राह्मण रहता थां वह वेदपाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंशमें, जो सर्वथा निष्कल्ड था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुलके लिये उचित वेद शास्त्रों के स्वाध्यायको छोड़कर ढोल आदि अजाते हुए उसने नाच- गानमें मन लगायां गीत, नृत्य और बाजा बजाने की कलामें परिश्रम करके पिडग्ल ने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और उसी से उसका राजभवन में भी प्रवेश हो गया। वह राजा के साथ रहने लगा और पराययी स्त्रियों को बुला-बुलाकर उनका उपभोग करने लगा। स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से उच्छृडख्ल होकर वह एकान्त में राजा से दूसरों के दोष बतलाने लगा। पिडग्लकी एक स्त्री थी, जिसका नाम थ अरूणा। वह चीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ विहार करने की इच्छा से उन्हीं की घूमा करती थी । उसने पति को अपने मार्ग का मण्टक समझकर एक दिन आधी रात में घरके भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाशको जमीन में गाड़ दिया। इस प्रकार प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक में पहुँचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।
अरुणा भी भगन्दर रोग से अपने सुन्दर शरीर को त्यागकर घोर नरक भोग ने के पछात् उसी वन में शुकी हुई। एक दिन वह दाना चुगने की इन्छा से इधर-उधर फुदक रही थी, इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्व जम्म के वैरका स्मरण करके उसे बपने तीखे नखोंसे फाड डाला। शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्यकी खोपड़ी में गिरी। गिद्ध पुनः उसकी ओर झपआ। इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलिओ ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया। उसकी पूर्वजन्मी पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जलमें बुबकर प्राण त्याग चुकी थी। फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिरकर डूब गया। तब यमराज के दूत उन दोनों को यमराज के लोक में ले गये। वहाँ अपने पूर्वकृत पापकर्मको याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे। तदनन्तर यमराजने जब उनके घृणित कर्मोे पर दृष्टि पात किया, तब उन्हें मालमू हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात् खोपड़ी के जलमें स्नान कर ने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है। तब उन्होंने उन दोनों मनोवाछित लोक में जाने की आज्ञा दी । यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनोें बड़े विस्मयमें पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगे- ‘भगवान् ! हम दोनों पूर्वजन्म में अत्यन्त घृणित पाप का संचय किया है। फिर हमें मनोवाछित लोको में भेजने का क्या कारण है? बताइये।’
यमराज ने कहा – गडग्के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्मज्ञानी रहते थे। वे एकान्तसेवी, ममतारहित, शान्त, विरक्त और किसी के द्वेष न रखनेवाले थे। प्रतिदिन गीता के पाँचवें अध्यायका जप करना उनका सदाका नियम था। पाँचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्मका ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्धचित्त होकर उन्होंने शरीर का परित्याग किया था। गीता के पाठसे जिनका शरीर निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्हीं महाम्माकी खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गये हो। अतः अब तुम दोनों मनोवाचित लोकों को जाओ; क्योंकि गीता के पाँचवें अध्याय के माहात्मयसे तुम दोनों शुद्ध हो गये हो।

श्रीभगवान् कहते हैं- सबके प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराजके द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमानपर बैठकर वैकुण्ठधाम को चले गये।

पाँचवाँ अध्याय

उसके उपरान्त अर्जुन ने पूछा – हे कृष्ण्! आप कर्मों के संन्यास की और फिर निष्काम कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं, इसलिये इन दोनों में एक जो निश्रय किया हुआ कल्याणकारण्क होवे, उसको मेरे लिये कहिये। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण महाराज बोले, हे अर्जून। कर्मों का संन्यास (अर्थात् मन, इंन्द्रियों और शरीरद्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापनका त्याग) और निष्काम कर्मयोग (अर्थात् समत्व-बुद्धि से भगवदर्थ कर्मोें का करना) ये दोनों ही परम कल्याण के करनेवाले हैं, परंतु उन दोनों में भी कर्मों के संन्यास से निष्काम कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है। इसलिये हे अर्जून! जे पुरुष किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकड्क्षा करता है, वह निष्काम कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है, क्योकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हुआ पुरुष सुखपूर्वक संसाररूप बन्धन से पुक्त हो जाता है। हे अर्जून! ऊपर कहे हुए संन्यास और निष्काम कर्मयोगको मूर्ख-लोग अलग-अलग फलवाले कहते है। न कि पण्डितजनरू क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार स्थित हुआ पुरुष दोनो के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है। ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है, इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोगको फलरूप् को एक देखता है, वह ही यथार्थ देखता है परंतु हे अर्जून! निष्काम कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थातृ मन, इन्द्रियों और शरीरद्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मो में कर्तापनका त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूपको मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म परमात्माको शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।।
वश में किया हुआ है शरीर जिसके ऐसा जितेन्द्रिय और विशुद्ध अन्तःकरणवाला एवं सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्काम कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिपायमान नहीं होता ।।

हे अर्जून! तत्व को जाननेवाला सांख्य योगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्रावस लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मीचता हुआ भी सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बर्त रही हैं, इस प्रकार समझता हुआ निःसंदेह ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ। परंतु हे अर्जुन! देहाभिमानियों द्वारा यह साधन कठिन है और निष्काम कर्मयोग सुगम है, क्योंकि जो पुरुष सब कर्माे को परमात्मा में करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जलसे कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता ।। इसलिये निष्काम कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीरद्वारा भी आसक्तिको त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिये कर्म करते हैं। इसीसे निष्काम कर्मयोगी कर्मों के फलको परमेश्रवर अर्पण करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामी पुरुष फलमें आसक्त हुआ कामनाके द्वारा बँधता है, इसलिये निष्काम कर्मयोग उत्तम है।

हे अर्जुन! वश में है अन्तःकरण जिसके ऐसा साख्यायोगका आचरण करने वाला पुरुष तो निःसंदेह न करता हुआ और न करवाता हुआ नौ द्वारों वाले शरीररूप घरमें सब कर्मों को मनसे त्यागकर अर्थात् इन्द्रियाँ इन्द्रियों के अर्थों में बर्तती हैं, ऐसे मानता हुआ आन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है परमेश्रवर भी भूतप्राणियों के न कर्तापनको और न कर्मों को तथा न कर्मो के फल के संयोग को वास्तव में रचता है, किंतु परमात्मा के सकाश से प्रकृति ही बर्तती है अर्थात् गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं। सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभकर्म को भी ग्रहण करता है, किंतु माया के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं परंतु जिनका वह अन्तःकरण का अज्ञान आत्मज्ञान द्वारा नाश हो गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशता है (अर्थात् परमात्मा के स्वरूपको साक्षात् करता है) हे अर्जुन! तद्रूप है बुद्धि जिनकी तथा पद्रूप हैं मन जिनका और उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही है निरन्तर एकीभाावसे स्थिति जिनकी, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पापरहित हुए अपुनर्वृति को अर्थात् परम गतिको प्राप्त होते हैं। ऐसे वे ज्ञानीजन विद्याा और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समभाव से देखने वाले ही होते हैं।। इसलिये जिनका मन समत्वभाव में स्थित है उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया (अर्थात् वे जीते हुए ही संसारसे मुक्त हैं), क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दधन परमात्मामें ही स्थित् हैं। जो पुरुष प्रियको अर्थात् जिसको लोग प्रिय समझते हैं, उसको प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रियको अर्थात जिसको लोग अप्रिय समझते हैं उसको प्राप्त होकर उद्वेगवान् न हो, ऐसा स्थिरबुद्धि संशयरहित, ब्रह्मवेत्त पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थिर है। बाहर के विषयों के अर्थात् सांसारिक भोगों में आसक्ति रहित अन्तःकरणवाला पुरुष अन्तःकरण में जो भगवान्- ध्यानजनित आनन्द है, उसको प्राप्त होता है और वह पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मारूप योगमें एकीभावसे स्थित हुआ अक्षय आन्नद को अनुभव करता है। जो यह इन्द्रिय तथा विषयोंकें संयोग से उत्पन होने वाले सब लोग भोग हैं। वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं तो भी निःसंदेह दुःसके ही हेतु हैं और आदि -अन्तवाले अर्थातृ अनित्य हैं, इसलिये हे अर्जुन! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहिये ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है अर्थात् काम-क्रोध को जिसने सदा के लिये जीत लिया है, वह मनुष्य इस लोक में योगी है और वही सुखी है जो पुरुष निश्चय करके अन्तरात्मा में ही सुखवाला है और आत्मा में ही अरामवाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवाला है, ऐसा वह सच्चिदानन्दधन परब्रह्म परमात्माके साथ एकीभाव हुआ सांख्ययोगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है नाश हो गये हैं सब पाप जिनके तथा ज्ञान करके निवृत हो गया है संशय जिनका और सम्पूर्ण भूतप्राणियों के हित में रति जिनकी, एकाग्र हुआ है भगवान् के ध्यानमें चित्त जिनका ऐसे ब्रह्मवेत्त पुरुष शान्त परब्रह्म को प्राप्त होते है । काम-क्रोध से रहित जीते हुए चित्त वाले, परब्रह्म साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषों के लिये सब ओर से शान्त परब्रह्म परमात्मा ही प्राप्त है। हे अर्जुन! बाहर के विषयभोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थिर करके तथा नासिकामें विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके । जीती हुई हैं इन्द्रियों, मन और बुद्धि जिसकी ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है वह सदा मुक्त ही है। और हे अर्जुन मेरा भक्त मेरे को यज्ञ और तपों का भोगने वाला और सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों को भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूतप्राणियों का सुहद् अर्थात् स्वार्थरहित प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है और सच्चिदानन्दघन परिपूर्ण शान्त ब्रह्म के सिवा उसकी दृष्टि में और कुछ भी नहीं रहता, केवल वासुदेव-ही-वासुदेव रह जाता है।।

इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘‘कर्मसंन्यासयोग’’ नामक पाँचवाँ अध्याय।।

Share this content:

RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

Most Popular