चौथा अध्याय “ज्ञानकर्मसंगयोग” के नाम से प्रसिद्ध है। इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म और ज्ञान के संगम के महत्व को समझाया। भगवान ने यह बताया कि सही ज्ञान प्राप्ति से ही कर्मों में सिद्धि प्राप्त होती है और यही मार्ग मोक्ष की ओर ले जाता है। इस अध्याय के प्रमुख तत्वों का महत्व इस प्रकार है:
श्रीभगवान् कहते हैं- प्रिये! अब मैं चौथे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ। सुनो, भागरीरथी के तटपर वाराणसी (बनारस) नामकी एक पुरी है। वहाँ विश्वनाथ जी के मन्दिर में भरत नामके एक योगनिष्ठ महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्मचिन्तन में तत्पर हो आदरपूर्वक गीता के चतुर्थ अध्यययका पाठ किया करते थे। उसके अभ्यास से उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया था। वे शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे कभी व्यथित नहीं होते थे। एक समयकी बात है, वे तपोधन नगर की सीमा में स्थित देवताओं का दर्शन करने की इच्छा से भ्रमण करते हुए नगर से बाहर निकल गये । वहाँ बेरके दो वृक्ष थे। उन्हीं की जड़ में वे विश्राम करने लगे। एक वृक्ष की जड़ में उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्षके मूल में उनका एक पैर टिका हुआ था। थोड़ी देर बाद ज बवे तपस्वी चले गये तक बेर के वे दोनो वृक्ष पाँच ही छः दिनों के भीतर सूख गये। उनमें पते और डालियाँ भी नहीं रह गयी। तत्पश्रात् वे दोनो वृक्ष कहीं ब्राह्मणों के पवित्र गृहमें दो कन्याओं के रूप् में उत्पन हुए।
वे दोनो कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्ष की हो गयीं, तब एक दिन उन्होंने दूर देशो से घूमकर आते हुए भरतमुनि को देखा उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गयीं। और मीठी वाणी में बोलीं। मुने ! आपकी ही कृपासे हम दोनों का उद्धार हुआ है। बेरकी योनि त्यागकर माानव-शरीर प्राप्त किया हैं। उनके इस प्रकार कहने पर मुनि को बड़ा विस्मय हुआ।
उन्होंने पूछा- पुत्रियों ! मैंने कब और सि साधन से तुम्हे मुक्त किया था? साथ ही यह भी बताओं कि तुम्हारे बेरके वृक्ष होने में क्या कारण था ? क्योंकि इस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है।
तब वे कन्याएँ पहले उन्हें अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोलीं – मुने! गोदावरी नदी के तटपर छिनपाप नामका एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्यों की पुण्य प्रदान करने वाला है। वह पावनताकी चरम सीमापर पहुँचा हुआ हैं उस पर तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थें। वे ग्रीष्म-ऋतु में प्रज्वलित अग्रियों के बीच में बैठते थे, वर्षाकाल में जलकी धाराओं से उनके मस्तक के बाल सददा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय जलमें निवास करने के कारण उनके शरीर मे हमेशा रोगटे खडे रहते थे। वे बाहर-भीतर से सदा शुद्ध रहते, समयपर तपस्या करते तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए परम शान्ति प्राप्त करके आत्मामें ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वान के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे, उसे सुनने के लिये साक्षतृ ब्रह्माजी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे। ब्रह्माजी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था, अतः उनके आने पर भी वे सदा तपस्या में मग्र रहते थे। परमात्मा के ध्यान मं निरन्तर संलग्र रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपाको जीवन्मुक्त के समान मान कर इन्द्र को अपने समृद्धिशाली पदके सम्बन्ध में कुछ भय हुआ, तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैकड़ों विघ्र डालने आरम्भ किये। अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इन्द्र ने इस प्रकार आदेश दिया – तुम दोनों उस तपस्वीकी तपस्या में विघ्र डालो, जो मुझे इन्द्रपद से हटाकर स्वयं स्वर्गका राज्य भागना चाहता है।
इन्द्रका यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरीके तीरपर, जहाँ वे मुनि तपस्या करते थे, आयीं। वहाँ मन्द एवं गम्भीर स्वर से बजते हुए मृदग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गाना आरम्भ किया । इतना ही नहीं, उन योगी महात्मा को वश में करने के लिय हमलोग स्वर, ताल और लयके साथ नृत्य भी करने लगीं। बीच-बीच में जरा-जरा-सा अंचल खिसक ने पर उन्हें हमारी छाती भी दीख जाती थी। हम दोनों की अन्मत गति कामभावका उद्दीपन करने वाली थी, किंतु उसने उन निर्विकार चित वाले महात्मा के मन में क्रोंध का संचार कर दिया। तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोधपूर्वक शाप दिया – ‘अरी! तुम दोनों गंगा जी के तटपर बेर के वृक्ष हो जाओ। यह सुनकर हमलोगोंने बड़ी निय के साथ कहा- महात्मन् हम दोनों पराधीन थीं। अतः हमारे द्वारा जो दूष्कर्म बन गया है, उसे आप क्षमा करें। यों कहकर हमने मुनिको प्रसन्न कर लिया। तब उन पवित्र चित वाले मुनिने हमारे शापोद्धार की अवधि निचित करते हुए कहा- ‘भरतमुनिके आनेतक ही तुम पर यह शाप लागू होगा। उसके बाद तुमलोगों का मर्त्यलोक में जन्म होगा और पूर्वजन्म की स्मृति बनी रहेगी।
‘मुने ! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्ष के रूप में खडी थीं। उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था, अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल शापसे ही नहीं, इस भयानक संसार से गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठद्वारा हमें मुक्त कर दिया।
श्रीभगवान् कहते हैं- उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदरके साथ प्रतिदिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगीं, जिससे उनका उद्धार हो गया।।
चौथा अध्याय
इसके उपरान्त श्रीकृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! मैंने इस अविनाशी योगकों कल्प के आदिम सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकुके प्रति कहा। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त हुए इस योग को राजर्षियोंने जाना, परंतु हे अर्जुन! वह योग बहुत काल से इस पृथ्वीलोंक में लोप (प्रायः) हो गया था वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिये वर्णन किया हैं, क्योकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये तथा यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात् अति मर्मका विषय है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र महाराज के वचन सुनकर अर्जुन ने पूछा, हे भगवान् आपका जन्म तो आधुनिक अर्थात् अब हुआ है और सुर्यका जन्म बहुत पुराना है, इसलिये इस योग को कल्प के आदिमें आपने कहा था यह मैं कैसे जानूँ ? इसपर श्रीकृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से-जन्म हो चुके हैं, परंतु हे परन्तप! डन सबको तू नहीं जानता है और मैं जानता हूँ मेरा जन्म प्राकृत मनुष्यों के सदृश नहीं हैं, मैं अविनाशीस्वरूप, अजन्मा होनेपर भी तथा सब भूत-प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ। तब-तब ही मैं अपने रूपको रचता हूँ अर्थात् प्रकट करता हूँ। क्योंकि साधु पुरुषोंका उद्धार करने के लिये और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिये तथा धर्म स्थापना करने के लिये युग-युग में प्रकट होता हूँ। इसलिये हे अर्जुन! मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य अर्थातृ अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जानता है, वह शरीर को त्याग कार फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है, किंनु मुझे ही प्राप्त होता है।।
हे अर्जुन! पहले ही राग, भय और क्रोध से रहित अनन्य भावसे मेरे में स्थिति वाले मेरे शरण हुए बहुत-से पुरुष ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके है। क्योंकि हे अर्जुन! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी वैसे ही भजता हू, इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमानृ मनुष्यगण सब प्रकारसे मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं जो मेरे को तत्व से नहीं जानते हैं, वे पुरुष इस मनुष्य लोक में कर्माें के फलको चाहते हुए देवताओं को पूजते है और उनके कर्मों से उत्पन हुई सिद्धि भी शीघ्र ही होती है, परंतु उनको मेरी प्राप्ति नहीं होतीं। इसलिये तू मेरे को ही सब प्रकार से भज।।
हे अर्जुन! गुण और कर्मोे के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं, उनके कर्ता को भी मुझ अविनाशी परमेश्रवर को तू अकर्ता ही जान। क्योंकि कर्माे के फल मे मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मेरे को कर्म लिपायमान नहीं करते, इस प्रकार जो मेरे को तत्व से जानता है, वह भी कर्मो से नही बँधता है। तथा पहिये होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार किये हुए कर्म को ही कर परंतु कर्म क्या है और अकर्म क्या है? ऐसे इस विषयों बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हें, इसलिये मैं, वह कर्म अर्थात् कर्मोें का तत्व तेरे लिये अच्छी प्रकार कहूँगा कि जिसको जानकर तू अशुभ अर्थातृ संसार बन्धन से छूट जायगा ।।
कर्म का स्वरूप् भी जानना चाहिये और अकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये तथा निषिद्ध कर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मकी गति गहन है जो पुरुष कर्म में अर्थात् अहंकार रहित की हुई सम्पूर्ण चेष्टाओं में अकर्म अर्थात् वास्तव में उनका न होना पना देखे और जो पुरुष अकर्म में अर्थात् अज्ञानी पुरुष द्वारा किये हुए सम्पूर्ण क्रियाओं के त्याग में भी कर्म को अर्थातृ त्यागरूप क्रिया को देखे, वह पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान् है और वह योगी सम्पूर्ण कर्मो का करने वाला है।।
हे अर्जुन! जिसके सम्पूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्रिद्वारा भस्म हुए कर्माें वाले पुरुष को ज्ञानी जन भी पण्डित कहते हैं। जो पुरूष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानन्द परमात्मा में तृप्त है, वह कर्मों के फल और सडग अर्थात् कर्तृत्व-अभिमानको त्यागकर कर्म में अच्छी प्रकार बर्तता हुआ भी कुछ भी नहीं करता हैं जीत लीया है अन्तःकरण और शरीर जिसने तथा त्याग दी है सम्पूर्ण भोगों की सामग्री जिसने ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीरसम्बन्धी कर्मको करता हुआ भी पापको नहीं प्राप्त होता हैं अपने-आप जो कुछ आ प्राप्त हो उसमें ही ंसतुष्ट रहने वाला और हर्ष शोकादि द्वन्द्वदोंसे अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थात् ईर्ष्यासे रहित सिद्वि और असिद्धिमें समत्वभाववाला पुरुष कर्मोंको करके भी नहीं बंधता है क्योंकि आसक्तिसे रहित ज्ञान में स्थित हुए चित वाले यज्ञ के लिये आचरण करते हुए मुक्त पुरुष के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।
उन यज्ञ के लिये आचरण करने वाले पुरुषो में से कोई तो इस भाव से यज्ञ करते है कि अर्पण अर्थात् स्त्रुवादिक भी ब्रह्मा है और हवि अर्थात् हवन करने योग्य द्रव्व भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप अग्रि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है, इसलिय ब्रह्मारूप कर्म में समाधिस्थ हुए उस पुरूष द्वारा जो प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है। और दूसरे येागीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को अच्छी प्रकार उपासते है अर्थातृ करते हैं और दूसरे ज्ञानीजन परब्रह्म परमात्मारूप् अग्रि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को हवन करते हैं। अन्य योगीजन श्रोत्रादिक सब इन्द्रियों को संयम अर्थात् स्वाधीनतारूप अग्रि में हवन करते हैं अर्थातृ इन्द्रियो विषयों से रोक कर अपने वश मे कर लेते है और दूसरे येागीलोग शब्दादिक विषयों को इन्द्रियरूप अग्रि में हवन करते हैं अर्थात् रागद्वेषरहित इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करते हुए भी भस्मरूप करते हैं दूसरे योगीजन सम्पूर्ण इंन्द्रियोंकी चेष्टाओं को तथा प्राणों के व्यापारको ज्ञान से प्रकाशित हुई, परमात्मा में स्थितिरूप योगाग्रि मे हवन करते है दूसरे कई पुरुष ईश्वर-अर्पण -बुद्धि से लोकसेवा में द्रव्य लगानेवाले हैं, वैसे ही कई पुरुष स्वधर्म-पालनरूप तपयज्ञको करनेवाले हैं और कई अष्टायोगरूप यज्ञ को करने वाले हैं और दूसरे अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्रशील पुरुष भगवान के नामका जप तथा भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का अध्ययनरूप ज्ञानयज्ञ के करनेवाले हैं। दूसरे योगीजन अपानवायु में प्राणवायुको हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं तथा अन्य योगीजन प्राण और अपानकी गति को रोककर प्राणयाम के परायण होते हैं। दूसरे नियमित आहार करने वाले योगीजन प्रणोंको प्राणों मेंही हवनकरते हैं, इस प्रकार यज्ञोंद्वारा नाश हो गया हैं पाप जिनका ऐसे यह सब ही पुरुष यज्ञो को जानने वाले हैं। हे कुरुक्षेष्ठ अर्जुन! यज्ञों के परिणामरूप ज्ञानमृत को भागने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञरहित पुरुष को यह मनुश्यलाक भी सुखदायक नहीं हैं, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा ऐसे बहुत प्रकार के यज्ञ वेदकी वाणी में विस्तार किये गये है।, उन सबको शरीर, मन और इन्द्रियों की क्रिया द्वारा उत्पन होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर निष्कामकर्मयेाग द्वारा संसार बन्धन से मुक्त हो जायगा।।
हे अर्जुन! सांसारिक वस्तुओं से होने वाले यज्ञ से ज्ञान रूप यज्ञ सब प्रकार श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ! सम्पूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शोष होने हैं अर्थात् ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है। इसलिये तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दण्डवत्-प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किये हुए प्रश्न द्वारा ज्ञान को जान, वे मर्म को जानने वाले ज्ञानी जन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे। कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा और हे अर्जुन! जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनन्त चेतनरूप हुआ अपने अन्तर्गत समष्टि बुद्धिके आधार सम्पूर्ण भूतों को देख्ेागा और उपरान्त मेरे में अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप् में एकी भाव हुआ सच्चिदानन्दमय हेी देखेगा। यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है तो भी ज्ञानरूप नौाकाद्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जायगा। हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्रि ईंधनको भस्ममय कर देता है। इसलिये इस संसार में पवित्र करने वाला निःसन्देह कुछ भी नहीं हैं, उस ज्ञान को कितने ही काल से अपने-आप समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्धान्तःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है। हे अर्जुन! जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है, ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत्प्राप्तिरूपप रम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे अर्जुन! भगवद्विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धापरहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है, उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिये तो न सुख हे और न यह लोक है, न परलोक है अर्थात् हय लोक और परलोक दोनों ही उसके लिये भ्रष्ट हो जाते है। हे धनज्य! समत्व-बुद्धिरूप योगद्वारा भगवदर्पण कर दिये हैं। सम्पूर्ण कर्म जिसने और ज्ञानद्वारा नष्ट हो गये हैं सब संशय जिसके, ऐसे परमात्मपरायण पुरुष को कर्म नहीं बाँधते हैं। इससे हे भरतवंशी अर्जुन! तू समत्वबुद्धिरूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन हुए हृदय में स्थित इस अपने संशयको ज्ञानरूप तलवारद्वारा छेदन करके युद्ध के लिये खड़ा हो।।
इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म और ज्ञान के संगम के महत्व को समझाया नामक चौथे अध्याय।।
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