मंगलवार, जुलाई 8, 2025
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श्रीमद्भगवद्गीता–द्वितीय अध्याय माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita – Second Chapter Mahatmya

श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय को “सांख्य योग” कहा जाता है। यह अध्याय अर्जुन के विषाद को दूर कर उसे अपने कर्तव्य का बोध कराने वाला है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण आत्मा की अमरता, कर्मयोग, और स्थितप्रज्ञ की महिमा का उपदेश देते हैं। (श्रीमद्भगवद्गीता–द्वितीय अध्याय माहात्म्य || Srimad Bhagavad Gita – Second Chapter Mahatmya)

दूसरे अध्यायका माहात्म्य


श्रीभगवन् कहते हैं– लक्ष्मी! प्रथम अध्याय के माहात्म्यका उत्तम उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना दयिा। अब अन्य अध्सायों के माहात्म्य श्रवण करो। दक्षिण दिशामें वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पुरन्दरपुर नामक नगरमें श्रीमान् देवशर्मा नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। वे अतिथियों के पूजक, स्वाध्यायशील, वेद-शास्त्रों के विशेषज्ञ, यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले और तपस्वियों के सदा प्रिय थे। उन्होेंने उत्तम द्रव्यों के द्वारा अग्रि में हवन करके दीर्घकालतक देवताओं को तृप्त किया, किंतु उन घर्मात्मा ब्राह्मण को कभी सदा रहनेवाली शान्ति न मिली। वे परम कल्याणमय तत्वका ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियों के द्वारा सत्य-संकल्पवाले तपस्वियोंकी सेवा करने लगे। इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया। तदनन्तर एक दिन पृथ्वीपर उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा प्रकट हुए। वे पूर्ण अनुभवी, आकड्०क्षारहित, नासिकाके अग्रीागपर दृष्टि रखनेवाले तािा शान्तचित्त थे। निरन्तर परमात्माके चिन्तन में संलग्र हो वे सदा आन्दविभोर रहते थे। देवशर्माने उन नित्यसन्तुष्ट तपस्वीको शुद्धभावसे प्रणाम किया और पूछा- ‘महात्मन्! मुझे शान्तिमयी स्थिति कैसे प्राप्त होगी? तब उन आत्मज्ञानी संतने देवशर्माको सौपूर गा्रमके निवासी मित्रवान्का, जो बकरियेांका चरवाहा था, परिचय दिया और कहा, ‘वही तुम्हें उपदेश देगा।
यह सुनकर देवषर्माने महात्माके चरणों की वन्दना की और समृद्धिशाली सौपुर ग्राम में पहुँचकर उसके उत्तरभाग में एक विशाल वन देखा। उसी वनमें नदी के किनारे एक शिलापर मित्रवान् बैठा था। उसके नेत्र आन्दातिरेक से निश्रल हो रहे थे- वह अपलक दृष्टि से देख रहा था। वह स्थान आपसका स्वाभाविक वैर छोड़कर एकत्रित हुए परस्पर विरोधी जन्तुओं से घिरा था। वहाँ उद्यान में मन्द-मन्द वायु चल रही थी। मृगों के झुंड शान्तभाव से बैठे थे और मित्रवान् दया से भरी हुई आनन्दमयी मनोहारिणी दृष्टि से पृथ्वीपर मानो अमृत छिड़क रहा था। इस रूप में उसे देखकर देवशर्मा का मन प्रसत्र हो गयां वे उत्सुक होकर बड़ी विनय के साथ मित्रवान् के पास गये। मित्रवान् ने मस्तक को किंचित् नवाकर देवशर्माका सत्कार किया। तदनन्तर विद्वान् देवशर्मा अनन्य-चित्त से मित्रवान् के समीप गये और जब उसके ध्यानका समय समाम्त हो गया, उस समय उन्होंने अपने मनकी बात पूछी- ‘महाभाग ! मैं आत्माका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ । मेरे इस मनोरथ की पूर्ति के लिये मुझे किसी ऐसे उपायका उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो।
देवशर्मा की बात सुनकर मित्रवान् ने एक क्षणतक कुछ विचार किया। उसके बाद इस प्रकार कहा- ‘विद्वन्! एक समय की बात है, मैं वन के भीतर बकरियों की रक्षा कर रहा थां इतने में ही एक भयंकर व्याघ्र पर मेरी दृष्टि पड़ी जो मानो सबको ग्रस लेना चाहता था। मैं मृत्यु से डरता था, इसलिये व्याघ्र को आते देख बकरियों के झुंडको आगे करके वहाँ से भाग चला, किंतु एक बकरी तुरंत ही सारा भय छोड़कर नदी के किनारे उस बाघ के पास बेरोक-टोक चली गयीं फिर तो व्याघ्र भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गयां उसे इस अवस्था में देखकर बकरी बोली- ‘व्याघ्र! तुम्हें तो अभीष्ट भोजन प्राप्त हुआ है। मेरे शरीर से मांस निकालकर प्रेमपूर्वक खाओ न! तुम इनती देर से देर से खडे क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने का विचार क्यों नहीं हो रहा है?
व्याघ्र बोला- बकरी! ठस स्थान पर आते ही मेरे मनसे द्वेषका भाव निकल गया। भूख-प्यास भी मिट गयी। इसलिये पास आनेपर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता। व्याघ्र के यों कहनेपर बकरी बोली – ‘न जाने मैं कैसे निर्भय हो गयी हूँ। इसमें क्या कारण हो सकता है? यदि तुम जानते हो तो बताओ। यह सुनकर व्याघ्र ने कहा – ‘मैं भी नहीं जानता। चलो, सामने खडे़ हुए इन महापुरुष से पूछें। ऐसा निश्रय करके वे दोनों वहाँ से विस्मय में पड़ा था। इतने में ही उन्होंने मुझ से ही आकर प्रश्न किया। वहाँ वृक्षकी शाखा पर एक वानरराज था। उन दोनों के साथ मैंने भी वानरराज से पूछा। विप्रवर! मेरे पूछने पर वानर राज ने आदरपूर्वक कहा- ‘अजापाल! स्नो, इस विषय में मैं तुम्हें प्राचीन वृत्तन्त सुनाता हूँ। यह सामने वन के भीतर जो बहुत बड़ा मन्दिर है, उसकी ओर देखो। इसमें ब्रह्माजीका स्थापित किया हुआ एक शिवलिग्ड है। पूर्वकाल में यहाँ सुकर्मा नामक एक बुद्धिमान् महात्मा रहते थे, जो तपस्या में संलग्र होकर इस मन्दिर में उपासना करते थे। वे वनमें से फूलों का संग्रह कर लाते और नदी के जलसे पूजनीय भगवान् शडर को स्त्रान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार आराधनाका कार्य करते हुए सुकर्मा यहाँ निवास करते थे। बहुत सुकर्मा ने बाद उनके समीप किसी अतिथि को आगमन हुआ। सुकर्माने भोजन के लिये फल लाकर अतिथि को अर्पण किया और कहा- ‘विद्वन्! मैं केवल तत्वज्ञान की इन्छासे भगवान शडक्र की आराधना करता हूँ। आज इस आराधना का फल परिपक्क होकर मुझे मिल गया; क्योंकि इस समय आप-जैसे महापुरुष ने मुझपर अनुग्रह किया है।
सुकर्मा के ये मधुर वचन सुनकर तपसया के धनी माहात्मा अतिथि को बड़ी प्रसन्ता हुई। उन्होंने एक शिलाखण्ड पर गीता का दूसरा अध्याय लिख दिया और ब्राह्मण को उसके पाठ एवं अभ्यास के लिये आज्ञा देते हुए कहा- ‘ब्रह्मन्! इससे तुम्हारा आत्मज्ञान-सम्बन्धी मनोरथ अपने-आप सफल हो जायगा। यों कहकर वे बुद्धिमान् तपस्वी सुकर्मा के सामने ही उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये। सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेश के अनुसार निरन्तर गीता के द्वितीय अध्यायका अभ्यास करने लगे। तदनन्तर दीर्धकाल के पछात् अन्तःकरण शुद्ध होकर उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। फिर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ का तपोवन शान्त हो गया । उनमें शीत-उष्ण और राग-द्वेष आदिकी बाधाएँ दूर हो गयीं। इतना ही नहीं, उन स्थानों में भूख-प्यास का कष्ट भी जाता रहा तथा भयका सर्वथा अभाव हो गया। यह सब द्वितीय अध्यायका जप करने वाले सुकर्मा ब्राह्मण की तपस्याका ही प्रभाव समझो।

मित्रवान् कहता है– वानरराज के यों कहने पर मैं प्रसत्रतापूर्वक बकरी और बाघ के साथ उस मन्दिर की ओर गया। वहाँ जाकर शिलाखण्ड पर लिखे हुए गीता के द्वितीय अध्याय को मैंने देखा और पढ़ा। उसी की आविती करने से मैंने तपस्या का पार पा लिया है। अतः भद्रपुरुष ! तुम भी सदा द्वितीय अध्याय की ही आवृति किया करो। ऐसा करने पर मुक्ति तुम से दुर नहीं रहेगी।

श्रीभगवान् कहते हैं– प्रिये! मित्रवान् के इस प्रकार आदेश देने पर देवशर्मा ने उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरन्दरपुर की राह ली। वहाँ किसी देवालय में पूर्वाेक्त आत्मज्ञानी महात्माको पाकर उन्होंने यह सारा वृतान्त निवेदन किया और सबसे पहले उन्हीं से द्वितीय अध्याय को पढ़ा। उनसे उपदेश पाकर शुद्ध अन्तःकरणवाले देवशर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धा के साथ द्वितीय अध्याय का पाठ करने लगे। तबसे उन्होंने अनवद्य (प्रशंसा के योग्य) परमपद को प्राप्त कर लिया। लक्ष्मी ! यह द्वितीय अध्याय उपाख्यान कहा गया।

दूसरा अध्याय


सञ्जय बोले कि पूर्वोक्त प्रकारसे करुणा करके व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवानृ मधुसूदन ने यह बचन कहा।।

हे अर्जुन्! तुमको इस विषमस्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों से आचरण किया गया है, न स्वर्ग को देने वाला है, न कीर्ति को करने वाला है इसलिये हे अर्जुन! नपुसंकता को मत प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं है।
हे परंतप! तुच्छ हृदय की दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो।।
तुम अर्जुन बोले कि हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के प्रति किस प्रकार बाणोंसे युद्ध करूँगा, क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं इसलिसे इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर इस लोक मेें भिक्षा को अत्र भी भोगना कल्याण कारक समझता हूँ, क्योकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा। और हमलोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये क्या करना श्रेष्ठ हरै अथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेगे या हमको वे जीतेंगे और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं। इसलिये कायरतारूप दोष करके उपहत हुए स्वभाववाला और धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ जो कुछ निश्रय किया हुआ कल्याणकारक साधन हो, वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिये। क्योकि भूमि में निष्कण्टक धनधान्यसम्पत्र राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मै। इस उपायकों नहीं देखता हूँ जो कि मेरी इन्द्रियों के सुखानेवाले शोक को दुर कर सके।

सञ्जय बोले, हे राजन्! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान् से ‘युद्ध नहीं करूँगा। ऐसे स्प्ष्ट कहकर चुप हो गये उसके पपरान्त हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महारान ने दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकयुक्त अर्जुन को हँसते हुए-से यह बचन कहे।

हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों के-से बचनों को कहता है; परंतु पण्डितजन जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी शोक नहीं करते है। क्योंकि आत्मा नित्य है। इसलिये शोक करना अयुक्त है। वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। किंतु जैसे जीवात्मा की इस देहमें कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है,उस विषय में धीर पुरुष नहीं मोहित होता है अर्थात् जैसे कुमार, युवा और जरावस्थारूप स्थूलशरीर का विकार अज्ञान से आत्मा में भासता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होनारूप् सूक्ष्म शरीर का विकार भी अज्ञान से ही आत्मा में भासता है, इसलिये तत्व को जानने वाला धीर पुरुष इस विषय में नहीं मोहित होता है। हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देनेवाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो छनभंगुर और अनित्य हैं, इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! उनको तू सहन कर क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझ ने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रियों के विषय व्याकुल नही कर सकते वह मोक्ष के लिये होता है। और हे अर्जुन! असत् वस्तु को तो अस्तित्व नहीं है और सत् का अभाव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों का ही तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है इस न्याय के अनुसार नाशरहित तो उसको जान कि जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, क्योकि इस अविनाशी का विनाश करने को कोई भी समर्थ नहीं है। और इस नाशरहित अप्रमेय नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं, इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।।

जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते है; क्योंकि यह आत्मा न मारता है और न मरता अथवा न यह आत्मा हो करके फिर होनेवाला है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, शास्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी यह नाश नहीं होता है।
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है। और यदि तू कहे कि मैं तो शरीरों के पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नहये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है-
हे अर्जुन! इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है ।। क्योकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा, अदाह्म, अकेद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निःसंदेह नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है। यह आत्मा अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिन्त्य अर्थात् मनका अविषय और आत्मा विकाररहित अर्थात् ऐसा जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है।।
यदि तू इसको सदा जन्म ने और सदा मरनेवाला माने तो भी हे अर्जुन! इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है। क्योकि ऐसा होना सिद्ध हुआ, इससे भी तू इस बिना उपाय वाले विषय में शोक करने को योग्य नहीं है यह भीष्मादिकों के शरीर मायामय होने से अनित्य हैं, इससे शरीरों के लिये भी शोक करना उचित नहीं; क्योंकि हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर वाले और मरने के बाद भी बिना शरीर वाले ही हैं, केवल बीच में ही शरीर वाले प्रतीत होते हैं, फिर उस विषय में क्या चिन्ता है।
हे अर्जुन! यह आत्मात्व बड़ा गहन है, इसलिये कोई महापुरुष ही इस आत्मा को आश्रर्य की ज्यों देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महानपुरुष ही आश्रये की ज्यों इसके तत्व को कहता है और दूसरा कोई ही इस आत्मा को आश्रर्य की ज्यों सुनता है और कोई-कोई सुनकर भी इस आत्मा को नहीं जानता हे अर्जुन! यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिये सम्पूर्ण भूतप्राणियों के लिये तू शोक करने को योग्य नहीं है।
और अपने धर्मको देखकर भी तू भय करने को योग्य नहीं है; क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिये नहीं है। हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले क्षत्रिय के लिये नहीं है। हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप् इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। और यदि तू इस धर्मयुक्त संग्राम को नहीं करेगा तो स्वधर्म को और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। और सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्ति को भी कथन करेंगे और वह अपकीर्ति माननीय पुरुष के लिये मरण से भी अधिक बुरी होती हैं। और जिनके तू बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होग। वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से उपराम हुआ मानेंगे। और तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्यकी निदा करते हुए बहुत-से न कहने योग्य बचनों को कहेगे, फिर उससे अधिक दुःख क्या होगा। इससे युद्ध करना तेरे लिये सब प्रकार से अच्छा है; क्योंकि या तो मरकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा, इससे हे अर्जुन! युद्ध के लिये निश्रय वाला होकर खडा हो।।
यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्यकी इच्छा न हो तो भी सुख-दुःख, लाभ -हानि और जय-पराजय को समान समझकर उसके उपरान्त युद्ध के लिये तैयार हो, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।
हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोग के विषय में कही गयी और इसी को अब निष्काम कर्मयोग के विषय में सुन, जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्माें के बन्धन को अच्छी तरह से नाश करेगा। इस निष्काम कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है। और उलटा फलरूप दोष भी नहीं होता है, इसलिये इस निष्काम कर्मयोगरूप् धर्मका थोड़ा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान् भयसे उद्धार कर देता है। हे अर्जुन1 इस कल्याणमार्ग में निश्रयात्मक बुद्धि एक है और अज्ञानी (सकामी) पुरुषों की बुद्धियाँ बहुत भेदों वाली अनन्त होती है। हे अर्जुन! जो सकामी पुरुष केवल फलश्रुति में प्रीति रखने वाले, स्वर्ग को ही परमश्रेष्ठ मानने वाले, इससे बढ़ कर और कुछ है ऐसे कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन जन्मरूप कर्मफल को देने वाली और भोग तथा ऐश्रर्य की प्राप्ति के लिये बहुत-सी क्रियाओं के विस्तार वाली, इस प्रकारकी जिस दिखाऊ शोभयुक्त वाणी कहते हैं । उस वाणीद्वारा हरे हुए चित्त वाले तथा भोग और ऐश्रर्य में आसक्ति वाले, उन पुरुषों के अन्तःकरण में निश्रयात्मक बुद्धि नहीं होती है।
हे अर्जुन! सब वेद तीनों गुणों के कार्यरूप् संसार को विषय करने वाले अर्थातृ प्रकाश करने वाले है; इसलिये तू असंसारी अर्थात् निष्कामी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से रहित नित्य वस्तु में स्थित तथा योग क्षेमको न चाहने वाला और आत्मपरायण हो क्योंकि मनुष्यका सब ओरसे परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे जलश में जितना प्रयोजन रहता है, अच्छी प्रकार ब्रह्मको जानने वाले ब्राह्मणका भी सब वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् जैसे बडे़ जलाशय के प्राप्त हो जाने पर जलके लिये छोटे जलाशयों की आवश्यकता नहीं रहती, वैसे ही ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होने पर आनन्द के लिये वेदों की आवश्यकता नही रहती । इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार होवे, फल में कभी नहीं और तू कर्मो के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न होवे।।
हे धनंजय! आसक्तिको त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मो को कर, यह समत्व भाव ही योग नामसे कहा जाता है इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त तुच्छ है, इसलिय हे धनंजय ! समत्व बुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर; क्योंकि फलकी वासना वाले अत्यन्त दीन हैं। समत्व-बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य-पाप दोनों को हम लोक में ही त्याग देता है अर्थात् उनसे लिपायमान नहीं होता, इससे समत्वबुद्धियोग के लिये ही चेष्टा कर, यह समत्वबुद्धिरून योग ही कर्मो में चतुरता है अर्थात् कर्मबन्धन से छुटने का उपाय है। क्योंकि बुद्धियोग युक्त ज्ञानीजन कर्माेंसे उत्पत्र होने वाले फलको त्याग कर जन्मरूप बन्धन से छूटे हुए निर्दोष अर्थात् अमृतमय परमपदको प्राप्त होते हैं। हे अर्जुन! जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप् दलदल को बिलकुल तर जायगी तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा। जब तेरी अनेक प्रकार के सिद्धान्तों को सुनने से विचलित हुई बुद्धि परमात्मा के स्वरूपमें और स्थिर ठहर जायगी तब तू समत्वरूप् योग को प्राप्त होगा।
इस प्रकार भगवान् के वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा – हे केशव! समाधिमें स्थित स्थिरबुद्धि वाले पुरुष का कया लक्ष्ण है? और स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? कैसे चलता है?
उसके उपरान्त श्रीकृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! जिस कालमें यह पुरुष मन में स्थिर सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग देता है, उस कालमें आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिरबुद्धि वाला कहा जाता है।। तथा दुःखों की प्राप्ति में उद्वेगरहित है मन जिसका और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गयी है स्पृहा जिसकी तथा नष्ट हेा गये हैं राग, भय और क्रोध जिसके, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता हैं जो पुरुष सर्वत्र स्त्रेहरहित हुआ, उन-उन शुभ अशुभ वस्तुओं को प्राप्त होकर न प्रसत्र होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है और कछुआ अपने अडेंग्को जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों की अन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है यद्यपि इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं परंतु राग नहीं निवृत्त होता है इस पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षत् करके निवृत्त हो जाता है और हे अर्जुन! जिससे कि यत्त्र करते हुए बुद्धिमान् पुरुष के भी मनको यह प्रमथम स्वभाववाली इन्द्रियाँ बलात् हर लेती हैं इसलिये मनुष्य को चाहिये कि उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे पररायण स्थित होवे; क्योकि जिस पुरुष के इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उनकी ही बुद्धि स्थिर होती है।।

हे अर्जुन! मनसहित इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से मनके द्वारा विषयों का चिन्तन होता है और विषयों को चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन होती है और कामना में विध्र पड़ने से क्रोध उत्पन होता है।। क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ़भाव उत्पन होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय-साधन से गिर जाता है परंतु स्वाधीन अन्तःकरण वाला पुरुष राग-द्वेषसे रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्ता अर्थात् स्वच्दता को प्राप्त होता है। उस प्रसन्ताचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है

हे अर्जुन! साधनरहित पुरुष के अन्तःकरण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती हे और उस अयुक्त के अन्तःकरण में आस्तिक भाव भी नहीं होता है और बिना आस्तक भाव वाले पुरुष को शान्ति भी नहीं होती, फिर शान्तिरहित पुरुष को सुख कैसे हो सकता है ? क्योकि जल में वायु नाव को जैसे हर लेता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच मे जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि हरण कर लेती है। इससे हे महाबाहो! थ्जस पुरुषकी इन्द्रियाँ सब प्रकार इन्द्रियों के विषयोंसे वश में की हुई होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है, और हे अर्जुन! सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के लिये जो रात्रि है, उस नित्य शुद्ध-बोधस्वरूप् परमानन्द में भगवतृ को प्राप्त हुआ योगी पुरुष जागता है और जिस नाशवानृ क्षणभगुर सांसारिक सुखमें सब भूत प्राणीी जागते हैं, तत्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि है जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र के प्रति नान नदियों के जल, उसको चलायमान न करते हुए समा जाते हैं, वैसे ही जिस स्थिरबुद्धि पुरुष के प्रति सम्पूर्ण भोग किसी प्राकरका विकार उत्पन किये बिना ही समा जाते हैं, वह पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, न कि भोगों को चाहने वाला।। क्योकि जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर, ममतारहित और अहंकार रहित हुआ बर्तता हे, वह शान्ति को प्राप्त होता है।
हे अर्जुन! यह ब्रह्मको प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर (योगी कभी) मोहित नहीं होता है और अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है।।


इति श्रीमद्भगवद्गीर्तारूपी उपनिषदृ एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय।।

श्रीमद्भगवद्गीता – पहला अध्याय (अर्जुन विषाद योग) माहात्म्य|| Srimad Bhagavad Gita – First Chapter (Arjuna Vishad Yoga) Greatness

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